ज़माना लफ्फाजी का जरुर है लेकिन दो टूक कहना आज भी काफी फायदेमंद है. इस दौर को हाज़िर-नाजिर जानकर एक कोशिश साफ़-साफ़ कहने की.
Friday, March 20, 2009
बनाया था माँ ने वह चूल्हा
कुएँ के मीठे पानी में गूँथ कर
बनाया था माँ ने वह चूल्हा
और पूरे पंद्रह दिन तक
तपाया था जेठ की धूप में
दिन - दिन भर
दिशा अदल - बदल कर.
उस दिन
आषाढ़ का पहला दौंगड़ा गिरा,
हमारे घर का बगड़
बूँदों में नहा कर महक उठा था,
रसोई भी महक उठी थी -
नए चूल्हे पर खाना जो बन रहा था.
गाय के गोबर में
गेहूँ का भुस गूँथ कर
उपले थापती थी माँ बड़े मनोयोग से
और आषाढ़ के पहले
बिटौड़े में सजाती थी उन्हें
बड़ी सावधानी से .
बूँदाबाँदी के बीच बिटौड़े में से
बिना भिगोए उपले लाने में
जो सुख मिलता था ,
आज लॉकर से गहने लाने में भी नहीं मिलता.
सूखे उपले
भक्क से पकड़ लेते थे आग
और
उँगलियों को लपटों से बचाती माँ
गही में सेंकती थी हमारे लिए रोटी
फूले फूले फुलके.
गेहूँ की रोटी सिंकने की गंध
बैठक तक ही नहीं , गली तक जाती थी.
हम सब खिंचे चले आते थे
रसोई की ओर.
जब महकता था बारिश में बगड़
और महमहाती थी गेहूँ की गंध से रसोई -
माँ गुनगुना उठती थी
कोई लोकगीत - पीहर की याद का.
माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी.
बारिश में बना रही हूँ रोटियाँ,
भीगे झोंके भीतर घुसे आते हैं.
मेरे बीरा ! इन झोंकों को रोक दे न !
बड़े बदमाश हैं ये झोंके,
कभी आग को बढ़ा देते हैं
कभी बुझा देते हैं आग को.
आग बढ़ती है
तो रोटी जलने लगती है.
तेरे बहनोई को जली रोटी पसंद नहीं रे!
रोटी को बचाती हूँ तो उँगली जल जाती है.
माँ की उँगलियाँ छालों से भर जाती थीं
पर पिताजी की रोटी पर एक भी काला निशान कभी नहीं दिखा!
माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी.
बारिश में बना रही हूँ रोटियाँ,
भीगे झोंके भीतर घुसे आते हैं.
मेरे बीरा ! इन झोंकों को रोक दे न !
बड़े बदमाश हैं ये झोंके ,
कभी आग को बढ़ा देते हैं
कभी बुझा देते हैं आग को.
आग बुझती है
तो रोटी फूलती नहीं
तेरा भानजा अधफूली रोटी नहीं खाता रे!
बुझी आग जलाती हूँ तो आँखें धुएँ से भर जाती हैं.
माँ की आँखों में मोतियांबिंद उतर आया
पर मेरी थाली में कभी अधफूली रोटी नहीं आई!
माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी.
रोटी बनाना सीखती मेरी बेटी
जब तवे पर हाथ जला लेती है,
आँखें मसलती
रसोई से निकलती है.
तो लगता है
माँ आज भी गुनगुना रही है .
मेरे बीरा ! इन झोंकों को रोक दे न!
बड़े बदमाश हैं ये झोंके,
कभी आग को बढ़ा देते हैं
कभी बुझा देते हैं आग को.
माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी.
समर्पण है अंतिम पड़ाव, उससे पहले कोई इति नहीं!
समर्पण है अंतिम पड़ाव, उससे पहले कोई इति नहीं!
प्रथम चरण अग्रिम पथ का,
दर्शन का विनिमय आकर्षण|
किन्तु चक्षु की विधि यही,
नयनाभिराम भी बस कुछ क्षण|
यह परिचय दो पक्षों का,
प्रारंभ गति की स्थिति यही|
समर्पण है अंतिम पड़ाव,
उससे पहले कोई इति नहीं!
सहसा प्रेम प्रखर हुआ,
लिये बाहु श्रृंगार वरण|
शिलाखंड-सा मैं तत्क्षण,
सहमा!
फिर सोचा कुछ क्षण|
आकर्षण-सी गति-मति इसकी,
अंतर अवशेष यही पाया|
भाव-विनिमय संबोध लिये,
वास्तु-बोध लिये लिपटी माया|
संबंध-धरा पर अंकुर ज्यों,
पुलकित करता जीवन-तन-मन|
ज्ञात यही प्रतिउत्तर मुझको,
यह आशक्ति का स्तन|
प्रश्न, उत्तर की पृष्ठ-भूमि पर,
संधान उकेरता फिर खेला|
"यायावर" क्यूँ तू ठीठक गया,
आई न अभी अंतिम बेला|
यह परिचय दो पक्षों का,
प्रारंभ गति की स्थिति यही|
समर्पण है अंतिम पड़ाव,
उससे पहले कोई इति नहीं!
वास्तु-बोध तब गौण हुआ,
अखंड-प्रवाह-सा कौन हुआ?
यह था क्या मुझमें-तुममें,
तेरा-मेरा सब मौन हुआ|
मनन-गहन की रची विधा पर,
यह कैसी? किसकी है तूती?
चक्षु-हीनता-सी अनुभूति,
यह दो पक्षों की प्रस्तुति|
किन्तु अटल विश्वास नहीं तो,
मानव फिर मरता है हर क्षण|
जीवन-शय्या की अग्नि में,
समर-शेष करता है हर कण|
प्रश्न, उत्तर की पृष्ठ-भूमि पर,
संधान उकेरता फिर खेला|
"यायावर" क्यूँ तू ठीठक गया,
आई न अभी अंतिम बेला|
यह परिचय दो पक्षों का,
प्रारंभ गति की स्थिति यही|
समर्पण है अंतिम पड़ाव,
उससे पहले कोई इति नहीं!
पुंज मोक्ष का पकड़ने,
मार्ग को प्रसस्त कर|
पीड़ा को मैं हरना चाह,
"हरि" को समस्त कर|
आस्था का प्रश्न था,
तेरा क्या? तू कौन है?
तूने जननी को न समझा,
ये तेरी समझ का मौन है|
स्वयं मेरा भी नहीं कुछ,
मैं प्रशस्ति पर खड़ा हूँ|
वात्सल्य की है भूख मुझको,
इसलिये भूखा पड़ा हूँ|
रे मुर्ख! "यायावर" तू अपने,
यात्रा को विस्तार दे|
क्यूँ अड़ा है आस्था पर,
समस्त मिथक का सार ले|
यह परिचय दो पक्षों का,
प्रारंभ गति की स्थिति यही|
समर्पण है अंतिम पड़ाव,
उससे पहले कोई इति नहीं!
मेरे लोचन भरे नीर से,
मातृ-भाव अंतिम परिवेश|
गर्भ-चरण श्रृष्टि की रचना,
है जननी अंतिम विशेष|
यह जीवन का सत्य समझ मैं,
प्रश्न आस्था से दुहराया|
उसके प्रतिउत्तर में मैंने,
समर्पित रूप "माँ" का पाया|
नौ-मास वरण कर धरा-गर्भ-सी,
जीवन में जीवन का सार लिये|
प्रसव-पीड़ा के अतिरेक में,
समर्पण का विस्तार लिये|
यह परिचय सम्पूर्ण श्रृष्टि का,
गति के मति की स्थिति यही|
समर्पण है अंतिम पड़ाव,
उससे पहले कोई इति नहीं!