Thursday, April 14, 2011

अनशन से अंग्रेज चले गए, अब भ्रष्टाचार की बारी


समाजसेवी अन्ना हजारे ने लोकपाल विधेयक में आमजन की भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए आमरण अनशन शुरू किया है। अन्ना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार निरोधी लोकपाल विधेयक का स्वरूप तय करने में नागरिक समाज को शामिल किया जाए और इसे मनवाने के लिए उन्होंने ‘गांधीवादी’ रास्ता अख्तियार करते हुए आमरण अनशन शुरू कर दिया है। अन्ना ने कहा है कि भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे नेताओं को कठघरे में खड़ा किया जाए, उन्हें सजा दी जाए और इस कार्यवाही में आमजन को भी भागीदारी दी जाए ताकि दोषी बचने न पाए।
अन्ना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के किसी भी मामले की जांच एक साल के भीतर पूरी हो जानी चाहिए और सजा कम से कम पांच साल तथा अधिकतम उम्रकैद होनी चाहिए, जबकि सरकारी प्रारूप में सजा कम से कम छह माह और अधिकतम सात वर्ष का प्रावधान है। हजारे कहते हैं कि सरकार लोगों के लिए कानून बनाना चाहती है। यदि वह इस बात को ध्यान में रखे बिना कानून बनाती है कि लोगों के दिमाग में क्या है, तो यह भारत में ब्रिटिश शासन के समान ही बुरा होगा। लेकिन प्रधानमंत्री ने लोकपाल विधेयक का स्वरूप तय करने के लिए नागरिक समाज के लोगों के साथ एक संयुक्त समिति गठित किए जाने की मांग अस्वीकार कर दी, पर उन्होंने यह जरूर कहा है कि वे हजारे और उनके मिशन का सम्मान करते हैं। उधर, कांग्रेस ने भी कह दिया है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने विधेयक पर चर्चा के लिए रक्षा मंत्री ए. के. एंटनी की अध्यक्षता में एक उप समिति बनाई है। जब विधेयक को लेकर प्रक्रिया जारी है ऐसे समय में इस तरह के रास्ते का चुनाव करना उचित नहीं है, सम्भवत: यह अनावश्यक है। हम हजारे का बहुत आदर करते हैं, लेकिन जो रास्ता उन्होंने चुना है वह ‘असामयिक’ है।
अब सवाल यह उठता है कि सामयिक क्या है? परिपक्व क्या है? कब किस समाज को खुद को बदलने के लिए या अपनी कमियों और बुराइयों को दूर करने के लिए जागना चाहिए?
एक समाजसेवी देश में फैले भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए कानून में समाज की भागीदारी चाहता है, उसे सरकार और सरकारी तंत्र पर पूरा भरोसा नहीं है, इसलिए वह चाहता है कि आम नागरिक भी उसमें अपनी भूमिका निभाए, लेकिन सरकार है कि उसकी प्रतिष्ठा का सम्मान करते हुए उसे नजरअंदाज करने पर तुली हुए है।
राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, 2 जी स्पेक्ट्रम, एस-बैंड, आईपीएल, भोपाल गैसकांड, आदर्श सोसायटी, विभिन्न राज्य सरकारों के जमीन आबंटन घोटाले, हसन अली, मधु कोड़ा, राजा, कलमाड़ी, ललित मोदी, राडिया, येदियुरप्पा, स्विस बैंक, कालाधन जैसे अनगिनत मुद्दे और नाम जब फिजाओं में घुले हुए हैं, तो किसी न किसी को कोई पहल तो करनी ही होगी। फिर ऐसी पहल ‘असामयिक’ कैसे हो सकती है?
क्या कांग्रेस यह कहना चाहती है कि सामयिक भ्रष्टाचार है और उससे सिर्फ सरकार ही निपटेगी और वह भी अपनी तरह से, उसमें जनता का क्या काम। जनता भ्रष्टाचार को जिस तरह अपने सामने घटता हुआ देख रही है; आगे भी देखती रहे और इंतजार करे कि सरकार क्या कदम उठाएगी।
बेशक कदम सरकार को ही उठाने होंगे और बड़े पैमाने पर उठाने होंगे। भ्रष्टाचार के कीचड़ में सने तंत्र को देखकर जिस देश के प्रधानमंत्री को यह कहना पड़ता हो कि भ्रष्टाचार से भारत की छवि को नुकसान पहुंचा है। भ्रष्टाचार सुशासन की जड़ पर प्रहार करता है। यह त्वरित विकास की दिशा में रुकावट है। यह सामाजिक समावेशिकरण के हमारे प्रयासों को बेअसर नहीं, तो हल्का अवश्य करता है। इससे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में हमारी छवि को नुकसान पहुंचता है और अपने ही लोगों में हमारी प्रतिष्ठा कम होती है; तो इससे यही साबित होता है कि आप अपनी वर्तमान यानी सामयिक स्थिति से बेहद खफा हैं, बेचैन हैं, लेकिन कहीं न कहीं लाचार भी हैं; वर्ना अब तक इसे खत्म करने के लिए बड़े पैमाने पर बड़े कदम क्यों नहीं उठाए गए।
जब जनता जागती है तो एक उसका क्रोध, उसकी बेचैनी, उसकी छटपटाहट एक आंदोलन का रूप ले लेती है। हमारी आजादी की लड़ाई इसका जीता-जागता उदाहरण है और हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े-लिखे को फारसी क्या, अभी हाल ही में हमारी जवान आंखों के सामने मिस्र, लीबिया, यमन, बहरीन जैसे देशों के भ्रष्ट शासनतंत्र को उखाड़ फेंकने के लिए त्रस्त, बेचैन, बेबस जनता ने आंदोलन छेड़ा, तो उनके फलते-फूलते, ऐशो-आराम में डूबे, शान की जिंदगी बसर करते, अथाह धन-दौलत दबाए, भरपूर पेट भरे और उन्हें सहलाते शासनाध्यक्षों ने दुम दबाकर भागने में ही भलाई समझी।
इन शासनाध्यक्षों के पेट भरे हुए हैं, इनका धन, जिसका रंग काला होता है, विदेशी बैंकों में दबा पड़ा है, इन्हें यह नहीं पता होता कि नौकरी, मजदूरी और मेहनत क्या होती है, इन्हें नहीं पता होता कि खेतों में किस तरह पसीना बहता है, अनाज किस तरह उगता है और न ही इन्हें खबर होती है कि भूख किस बला का नाम है।
फिर अगर इनके सामने अगर कोई भूख हड़ताल करता है, तो उसका असर क्या और किस तरह होगा, इस पर शंका ही जताई जा सकती है। खैर, अब शुरूआत हो ही गई है तो उम्मीद की जा सकती है कि ‘भूख’ उन भरपेट भ्रष्टाचारियों को वास्तविक ‘भूख’ का अहसास करवाए और उनकी अंतरात्मा जागे और उन्हें इस बात का अहसास हो कि हमने जिस धन को अपनी ‘बैठक’ के नीचे दबा रखा है; उससे देश के लाखों गरीबों और भुखमरों को ‘दो जून का निवाला’ मुहैया हो सकेगा।
अगर अन्ना जैसे गांधीवादी गांधीजी के मार्ग पर चलते हुए यह सोंचें कि भूख हड़ताल, अनशन, सत्याग्रह जैसे हथियारों से अंग्रेज तक देश छोड़कर भाग गए, तो फिर भ्रष्टाचार की क्या औकात; तो उनके आशावाद को सलाम!