एक पुरानी बात है, जो मेरे दादा*** ने मुझसे तब कही थी, जब मैं बोलने लगा था. उन्होंने कहा था '' बेटे, इन्सान को बोलना सीखने में दो साल लगते है, पर कब, कहाँ और क्या बोलना है, यह सीखने में पूरी उम्र निकल जाती है." बात में वाकई दम था. सोचा, अगर ऐसा ही है, तो क्यों न साफ -साफ़ बोलने की आदत अपनाई जाए. तो इस तरह से हम बेहूदे और बद-ज़ुबान हो गए. जब भी मुंह खोला, तो सामने वालों के मुंह बन गए, लेकिन हम खुश थे कि- हम दो टूक थे. एक आदरणीय*** ने सलाह दी, "कम बोलो, पर सार्थक बोलो.' हमने ये भी मान लिया और कुछ ही दिनों में भीड़ के चहेते बन गए, पर नुकसान बहुत हुआ दोस्तों, हाँ, सही कह रहा हूँ. और जब हुआ, मुझे पता चल गया कि बेटा अवि, तुम्हारी हिली, लेकिन हम फिर भी नहीं सुधरे. और सही कहें तो कभी सुधरेंगे भी नहीं. मेरी बॉस*** ने एक बार यूहीं कहा कि, इन्सान को हमेशा वैसे ही बना रहना चाहिए,जैसे वह मूल स्वभाव का है. किसी के लिए अलग नहीं, सबसे एक जैसा. बात जमीं और हमने तय कर लिया कि अब किसी साले के लिए नहीं बदलेंगे. *** (आप कहेंगे कि ये बीच-बीच में इसने कहा था, उसने कहा था का उल्लेख क्यों? तो दोस्तों, जीवन में जो किरदार आपका रास्ता तय करने में अहम् भूमिका निभाएं उन्हें सदा याद करते रहना चाहिए- ये मैं कहता हूँ.) ***
ये तो बात हुई कि दो टूक क्यों? अब दो टूक क्या? के बारे में भी कुछ सोच लें. अब चिट्ठा शुरू किया है तो कुछ न कुछ लिखना भी होगा. दो टूक के लिए आज के समय में विषयों की कमी नहीं. समाज, राजनीति, रिश्ते-नाते, सम्बन्ध, बहुत कुछ. तो बस हम भी कुछ इन्ही और इनके आसपास के विषयों को चुनने की कोशिश करेंगे. ये मेरी एक कोशिश है, खुद को परखने की, जो समय की जरुरत है, ऐसा मुझे लगता है. आप मेरा स्वतंत्र लेखन जाँच लीजिए. आमतौर पर जो ब्लॉग भाषा आप पढने के आदी है, माफ़ कीजियेगा वो नहीं परोस पाउँगा. मेरी भाषा अलग है और किसी जमात में शामिल होने के लिए मैं खुद की विशिष्टताओं को नहीं बदल सकता. इसलिए कुछ अलग तरह का होगा लेकिन अच्छा होगा, ये भरोसा दिला सकता हूँ. मेरा ये चिट्ठा कुछ हद तक बेबाक होगा, लेकिन सीमाओं के अन्दर. अपने 13 साल के पत्रकारिता जीवन में मैंने जिन भी वरिष्ठों के साथ काम किया है, उन्हें क्या आता था और मैं उनसे क्या सीखा है, इसे अपने ब्लॉग के पन्नों पर ज़ाहिर करने का प्रयास करूँगा. आप सभी से अनुरोध है कि अपनी प्रतिक्रिया और मार्गदर्शन दो टूक ज़ाहिर करें. मुझे बुरा सुनना अच्छा लगता है वो भी बड़ी बेशर्मी से...
तो चलिए दो टूक संवाद की शुरुआत करते हैं-
शुभम