Sunday, January 24, 2010

नमस्ते ! आप सब को ...

जनवरी २३ 2010, भोपाल


मैं अविनाश हूँ। भोपाल की आबो-हवा में सांसें लेता और उसी को वापस कर देता हूँ।
ब्लॉग लिखना, काफी मुश्किल था। हिम्मत नहीं थी। दूसरों की तरह जुगाली करना मकसद नहीं था, इसलिए लगा ठीक है, अगर कोई नहीं पढ़ेगा, तो खुद पढ़ लेंगे। आखिर लिख भी तो सिर्फ अपने लिए रहा हूँ। इसका श्रेय मैं एक ऐसे इन्सान को देना चाहूँगा, जो हर वक़्त खुद को किसी भी किरदार में बड़ी आसानी से गढ़ लेता है. लेकिन सब के लिए नहीं, सिर्फ अपनों के लिए।
बातचीत में एक दिन यूँ ही उन्होंने कहा कि अगर खुद से कोई शिकायत है और वजह खोजना मुश्किल हो रहा हो, तो लिखना शुरू करो. बस लगा, जैसे सही ही तो कह रही हैं. कहने के लिए वो मेरी बड़ी हैं, हर तरह से. उन्होंने लिखने का और खुद से नाराज़गी दूर करने का जो तरीका बताया, वो जच गया. और आज मैं खुद, अपने लिए और अपने आप पर लिख रहा हूँ। वैसे अपने इस कोने को मैंने २००९ में जीवन दिया था। समय ने समय ही नहीं दिया कि लिख सकूँ. आज फिर दोबारा कोशिश कर रहा हूँ, वो भी बड़ी हिम्मत से...!
मैं नहीं जनता की जो भी मैं लिख रहा हूँ, वो कोई पढ़ेगा भी या नहीं, लेकिन ये मेरा उद्देश्य नहीं है. लिखकर और खुद पढ़कर अगर खुद को बदल सका, तो ब्लॉगिंग की जय जय..
वरना लड़ने के लिए मैं खुद उपलब्ध हूँ ही।
लिखना शुरू कर रहा हूँ... आज से..।
कुछ सवाल जो परेशान कर कर रहे थे, उन्हें दिमाग से इस मशीनी दिमाग में डाल रहा हूँ।
अब आगे जो होगा देखेंगे..
ठीक है न!
शुरू करते है...
श्री गणेश करते है.

जनवरी 24 2010 , भोपाल/
नमस्ते
आपसे और पहली बार खुद से मिलकर कुछ अच्छा लग रहा है, आज काफी दिनों से मेरे अन्दर कुछ चल रहा था, खोजने पर कुछ सवाल थे, जिनमें से कुछ औरों से थे और कुछ खुद से... जिनसे पूछना है उनके लिए समय का इंतज़ार कर रहा हूँ। हाँ, अपने सवाल-जवाब से जरुर निकलना चाहता हूँ। इसलिए आज लिखने का मन किया. सवालो की अपनी खोज शुरू करता हूँ।
१- तुम कौन हो और तुम्हारे होने का मकसद क्या है?
थोडा सोचा...३ दिन लगे जवाब सोचने में. अब मजाक मत समझिये क्योंकि खुद को पहचानने और होने के कारणों की खोज करना इतना आसान काम नहीं है. खैर जवाब मिल गया. "मैं अपने घर का बड़ा बेटा हूँ, जो खुद को समझदार समझता है लेकिन वास्तव में है नहीं। वो सुबह उठता है, दिन भर के कामों को अख़बार पलटते हुए तय करता है, जिन लोगो का ज़िक्र इस सोच में आता है, उनके प्रति उस दिन की विचारधारा बनाता है और घर वालों पर टूट पड़ता है, ऑफिस आता है, जहाँ उसकी एक तय जगह है, लोग है, काम है, हँसतें-रुठते मुंह बनाते दिन निकालता है और वापस घर चला जाता है। "
उसके यानि मेरे होने का मकसद मुझसे खुद से क्यों जुदा है? यह सोचकर थोडा अजीब लगता है. आज से पहले यानि इस सवाल का जवाब खोजने से पहले इतना अजीब कभी नहीं लगा। खैर, मकसद जो मिला, वो दूसरों से जुदा था. कोई चाहता है, मैं ये करूँ, वो करूँ। कोई चाहता है ये बन जाओ, वो बन जाओ, कोई तो ऐसे भी है, जो देखते ही कह उठते है, ' जब से आया है, जीना-हराम कर दिया है, उनसे मेरा होना हज़म नहीं होता। घर में सभी चाहते है कि मैं आगे जाओ, कुछ बनूँ, लेकिन उन्हें शक है कि खुद कुछ न बिगाड़ ले।
लगता नहीं है कि सवाल का सही जवाब खोज पाया हूँ। बस जो खोजा है लिख रहा हूँ ।
सवाल कुछ और है लेकिन आज के लिए बस...
घर जाना है, खाना खाना है, सोना है ताकि कल उठ सकूँ।
चलता हूँ।
मिलते रहूँगा,
और कहाँ जाऊंगा.
शुभम ...