ज़माना लफ्फाजी का जरुर है लेकिन दो टूक कहना आज भी काफी फायदेमंद है. इस दौर को हाज़िर-नाजिर जानकर एक कोशिश साफ़-साफ़ कहने की.
Friday, June 24, 2011
Sunday, May 8, 2011
लादेन की मौत पर राजनीतिक मातम क्यों?
ओसामा बिन लादेन का अंत क्या हुआ, तथाकथित भारतीय धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियों को एक ऐसा मुद्दा मिल गया, जो मुस्लिम संवर्ग को रिझाने और अपनी ओर खींचने का काम करेगा? लादेन के अंत से पहले खासकर कांग्रेस ने बटला हाउस मुठभेड कांड और मुबंई पर पाकिस्तानी हमले को लेकर दिग्विजय सिंह को मुस्लिम संवर्ग की भावनाएं पोषित करने के लिए अप्रत्यक्ष तौर पर प्रक्षेपित किया गया था। दिग्विजय सिंह ने बटला हाउस कांड पर आजमगढ जाकर कैसी आतंकवाद की धार गर्म की थी. यह भी जगजाहिर है। मुंबई मे आईएसआई के हमले में महाराष्ट एसटीएस चीफ हेमंत करकरे की मौत को हिन्दू आतंकवाद से जोड़ने का निष्कर्ष भी तो मुस्लिम जनाधार के हितकारी था। अब दिग्विजय सिंह ओसामा बिन लादेन के अंत पर आंसु बहा रहे हैं और अमेरिका को कठधरे मे खड़ा कर रहे हैं। जबकि उदार मुस्लिम तबका इस तरह के राजनीतिक प्रक्रिया को मुस्लिम हित के खिलाफ ही मानते हैं।
पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी के नेता ने ओसामा बिन लादेन से मिलते-जुलते चेहरे वाले मुस्लिम समुदाय के ‘खालिक नुर‘ को राजनीतिक सहचर बनाया था। यथार्थ सीधे तौर ओसामा बिन लादेन की मिलती-जुलती शख्सियत के सहारे मुस्लिम वोट अपनी ओर करने का था। ओसामा बिन लादेन के डुब्लीकेट को देखने की भीड़ जुटती बहुत थी। अब लादेन के खेल का अंत हो गया है। अमेरिका ने उसे अपने सैनिक अभियान का शिकार बना दिया। पाकिस्तान में इस्लामिक संस्थाओं ने लादेन को श्रद्धांजलि ही नहीं दी बल्कि इस्लाम का सेनानी भी बताया। इस्लामिक सोशल साइडों पर भी ओसामा बिन लादेन को इस्लाम की सेनानी बताने और उसे शहीद घोषित करने की मुहिम तेजी के साथ चली है। पाकिस्तान सहित अन्य इस्लामिक देशों और इस्लामिक संस्थाओं/सोशल साइटों की लादेन प्रेम तो समझ आता है पर भारत में खास प्रकार के राष्टीय और क्षेत्रीय दलों का लादेन प्रेम कई प्रकार के सवाल खड़े करते हैं।
हम जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहते हैं वह लोकतांत्रिक व्यवस्था गैरधार्मिक है/गैर मजहबी है। फिर भी धर्म/मजहब के सहारे जनादेश को प्रभावित करने की कोशिशें हमेशा चलती रहती है। देश पर जिस कांग्रेस पार्टी की सता वह अपने पुराने जनाधार को फिर से थाथी बनाने के लिए कई प्रकार की नीतियां और हथकंडे अपनायी है। दिग्विजय सिंह इन्हीं कांग्रेसी हथकंडे का मोहरा है जो लादेन के मारे जाने पर सवाल खड़ा करते हैं बल्कि इसे इस्लामिक मूल्यो का हनन कहकर अमेरिका की आलोचना की हदें भी पार करते हैं। ओसामा बिन लादेन उन्हें इस्लामिक मूल्यों वाला ही क्यों दिखता है? उन्हे आतंकवादी और शांति के दुश्मन के प्रतीक ओसामा बिन लादेन क्यों नहीं दिखता है? जनसांिख्याकी विविधता एक ऐसी कड़ी है जो तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों को इस्लामिक मूल्यों के प्रति अतिरिक्त और खतरनाक आग्रही होने के लिए प्रेरित करता है। ऐसे अतिरिक्त और खतरनाक आग्रही होने के दुष्परिणामों पर कभी भी चिंता तक नही होती है। दुष्परिणामों में देश के अंदर में खतरनाक ढंग से बलवाकारी विचारों का संप्रेषण हुआ है और राष्टीयता की जगह मजहबी रूढ़ियां और आक्रमकता बढ़ी है?
दिग्विजय सिंह या फिर अन्य तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों का ओसामा बिन लादेन के प्रति खतरनाक आग्रही होने का कोई खास तत्कालीन स्वार्थ या नीति हो सकती है? ओसामा बिन लादेन को लेकर दिग्विजय सिंह और अन्य के समर्थनकारी बयानों-विचारों को क्या उपेक्षित कर देना ठीक होगा या फिर इस पर गंभीरता के साथ विचार किया जाना चाहिए और इसके राजनीतिक यथार्थ के तह में जाकर स्वार्थो की पड़ताल करने की जरूरत है। वास्तव में राजनीति में बयानों और प्रत्येक क्रियाओं का अपना एक निश्चित नीति होती है। इसीलिए चाहे दिग्विजय सिंह के लादेन के प्रति आग्रही सरोकार हो या फिर माकपा जैसी कम्युनिस्ट पार्टियों का लादेन के लिए अमेरिका को जिम्मेदार ठहराने की कुचेष्टा सभी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों मे गिरते नजर आते हैं।
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों को ध्यान में हमें रखना होगा। उतर प्रदेश विधान सभा चुनाव नजदीक है। सभी का ध्यान मुस्लिम वोट बैंक पर टिका हुआ है। राजनीतिक विश्लेषण में यह बात बार-बार बैठायी जा रही है कि उत्तर प्रदेश में मुस्लिम जिस ओर रूख करेंगे उसी की सत्ता बनेगी। कांग्रेस ने सच्चर कमेटी का लाभ पिछले लोकसभा चुनाव में उठा चुकी है। रामजन्म भूमि प्रकरण पर कांग्रेस का मुस्लिम वोट बैंक खाली हो चुका था। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में मुस्लिम संवर्ग को अपने पक्ष में करने की सफलता पायी थी और आश्चर्यजनक ढंग से सीटें जीती थी। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का खास ध्यान है। मुस्लिम समुदाय को रिझाने की अप्रत्यक्ष जिम्मेदारी दिग्विजय सिंह के पास है। अगर ऐसा नहीं होता तो अपनी ही सरकार की पुलिस द्वारा बटला हाउस कांड पर सवाल नहीं उठाते और आतंकवादियों के परिजनों से मिलने आजमगढ़ नहीं जाते। बटला हाउस कांड की विभिन्न एजेंसियों की जांच और न्यायिक जांच में पुलिस को क्लीन चिट दे दिया गया है फिर भी दिग्विजय सिंह बटला कांड पर सवाल उठाते रहे हैं। मुबंई हमले पर भी सवाल उठाकर पाकिस्तान को लाभार्थी बनाने की कोशिश करते हैं। कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह के बयान को यद्यपि खारिज कर दिया फिर भी कांग्रेस का मिशन यूपी और मिश्न मुस्लिम वोट बैंक की अप्रत्यक्ष नीतियां किसी भी परिस्थिति में जगजाहिर होने से बच नहीं पायेंगी?
राजनीतिक संवर्ग का तुष्टिकरण की नीति और आतंकवाद जैसी खतरनाक प्रवृति के समर्थन में खड़ा होने से मजहब आधारित संस्थाओं और शख्सियतों की शांति के खिलाफ मानसिकताएं पोषित होती हैं। कश्मीर में हुर्रियत जैसी राष्टविरोधी मजहबी संस्था के अध्यक्ष सैयद अली शाह गिलानी ने जब ओसामा बिन लादेन को आतंकवादी की जगह इस्लामिक सेनानी घोषित करता है और उसकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करता है तब कोई आवाज नहीं उठती है। हुरियत अली शाह गिलानी अकेले ऐसे मजहबी शख्सियत नहीं है जो आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को इस्लाम का सेनानी मानता हो। दुर्भाग्य यह है कि आज देश के अंदर में मजहबी रूढ़ियों और आतंकवादी विचारो के दफन करने की कोई राजनीतिक नीतियां नहीं हैं। आतंकवादियों को संरक्षण देने और उनके राष्टतोड़क बयानों और कृत्यों तक पर्दा डाला जाता है। अफजल गुरू और कसाब जैसे कई आतंकवादी आज हमारे जेलों में मेहमान की तरह एसोआराम से रह रहे हैं। उन्हें ‘चिकन बिरयाणी‘ खिलाया जा रहा है। इन्हें फांसी देने पर मुस्लिम संवर्ग का उफान और क्रोध का डर सताता है। बांग्लादेश ही नहीं बल्कि मिश्र जैसे मुस्लिम देश भी आतंक फैलाने वाले कई आतंकवादियों को फांसी पर चढाया है। उन्हें संख्यिाकी विविधता के आक्रोश का डर नहीं था।
राजनीतिक संवर्ग के स्वार्थ की पूर्ति तो अवश्व होती रहेगी और उनकी राजनीतिक सत्ता का स्थायीकरण होता रहेगा पर उस आग की लौ हमेशा हमारी धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को ही अपने आगोश में लेती रहेगी। पाकिस्तान की सामाजिक व्यवस्था आज पूरी तरह से इस्लामिक के उफानी और नरसंहारक विचारों के आगोश में क्यों समाया हुआ है? इसकी पडताल करनें है और पड़ताल से निकले यथार्थ और निष्कर्ष से भी सबक लेने की अनिवार्य जरूरत होनी चाहिए। पाकिस्तान में तानाशाही संवर्ग ने मजहबी और शरीयती आग लगायी थी। पोषण तानाशाही ही थी। खासकर तत्कालीन तानाशाह जियाउल हक ने पाकिस्तान में शरीयत लागू की थी और इस्लाम के उदार मूल्यों को दफन कर खतरनाक और बंधित समाज की नींव डाली थी। तानाशाही काल में पाकिस्तान की आवाम में विरोध की ज्वाला थी नहीं। आवाम भी समझ लिया था कि इस्लाम के खतरनाक मूल्यो से हम दुनिया को अपनी ओर झुका सकते हैं। कश्मीर को हड़प सकते हैं और भारत को तहस-नहस कर सकते हैं। प्रारंभिक काल में पाकिस्तान की खुशफहमी को बल जरूर मिला। अब उसका प्रतिफल पाकिस्तान को लहूलुहान कर रहा है। विकास की जगह गोलियां-बारूद और मानवबम की फोड़े जा रहे हैं। पाकिस्तान के इस हस्र को भारतीय राजनीतिक संवर्ग को सबक के तौर पर देखना चाहिए और तुष्टीकरण सहित वोट की राजनीति के लिए खतरनाक इस्लामिक विचारों के संरक्षण और बढावा देने के खेल से अलग होना चाहिए। पर ऐसा नहीं लगता कि भारतीय राजनीति खतरनाक इस्लामिक विचारों के बढावा देने की नीति बदलने को तैयार है। अगर ऐसा नहीं होता तो कांग्रेस सहित अन्य राजनीतिक पार्टियां ओसामा बिन लादेन के अंत के खिलाफ खड़ी होती?
पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी के नेता ने ओसामा बिन लादेन से मिलते-जुलते चेहरे वाले मुस्लिम समुदाय के ‘खालिक नुर‘ को राजनीतिक सहचर बनाया था। यथार्थ सीधे तौर ओसामा बिन लादेन की मिलती-जुलती शख्सियत के सहारे मुस्लिम वोट अपनी ओर करने का था। ओसामा बिन लादेन के डुब्लीकेट को देखने की भीड़ जुटती बहुत थी। अब लादेन के खेल का अंत हो गया है। अमेरिका ने उसे अपने सैनिक अभियान का शिकार बना दिया। पाकिस्तान में इस्लामिक संस्थाओं ने लादेन को श्रद्धांजलि ही नहीं दी बल्कि इस्लाम का सेनानी भी बताया। इस्लामिक सोशल साइडों पर भी ओसामा बिन लादेन को इस्लाम की सेनानी बताने और उसे शहीद घोषित करने की मुहिम तेजी के साथ चली है। पाकिस्तान सहित अन्य इस्लामिक देशों और इस्लामिक संस्थाओं/सोशल साइटों की लादेन प्रेम तो समझ आता है पर भारत में खास प्रकार के राष्टीय और क्षेत्रीय दलों का लादेन प्रेम कई प्रकार के सवाल खड़े करते हैं।
हम जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहते हैं वह लोकतांत्रिक व्यवस्था गैरधार्मिक है/गैर मजहबी है। फिर भी धर्म/मजहब के सहारे जनादेश को प्रभावित करने की कोशिशें हमेशा चलती रहती है। देश पर जिस कांग्रेस पार्टी की सता वह अपने पुराने जनाधार को फिर से थाथी बनाने के लिए कई प्रकार की नीतियां और हथकंडे अपनायी है। दिग्विजय सिंह इन्हीं कांग्रेसी हथकंडे का मोहरा है जो लादेन के मारे जाने पर सवाल खड़ा करते हैं बल्कि इसे इस्लामिक मूल्यो का हनन कहकर अमेरिका की आलोचना की हदें भी पार करते हैं। ओसामा बिन लादेन उन्हें इस्लामिक मूल्यों वाला ही क्यों दिखता है? उन्हे आतंकवादी और शांति के दुश्मन के प्रतीक ओसामा बिन लादेन क्यों नहीं दिखता है? जनसांिख्याकी विविधता एक ऐसी कड़ी है जो तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों को इस्लामिक मूल्यों के प्रति अतिरिक्त और खतरनाक आग्रही होने के लिए प्रेरित करता है। ऐसे अतिरिक्त और खतरनाक आग्रही होने के दुष्परिणामों पर कभी भी चिंता तक नही होती है। दुष्परिणामों में देश के अंदर में खतरनाक ढंग से बलवाकारी विचारों का संप्रेषण हुआ है और राष्टीयता की जगह मजहबी रूढ़ियां और आक्रमकता बढ़ी है?
दिग्विजय सिंह या फिर अन्य तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों का ओसामा बिन लादेन के प्रति खतरनाक आग्रही होने का कोई खास तत्कालीन स्वार्थ या नीति हो सकती है? ओसामा बिन लादेन को लेकर दिग्विजय सिंह और अन्य के समर्थनकारी बयानों-विचारों को क्या उपेक्षित कर देना ठीक होगा या फिर इस पर गंभीरता के साथ विचार किया जाना चाहिए और इसके राजनीतिक यथार्थ के तह में जाकर स्वार्थो की पड़ताल करने की जरूरत है। वास्तव में राजनीति में बयानों और प्रत्येक क्रियाओं का अपना एक निश्चित नीति होती है। इसीलिए चाहे दिग्विजय सिंह के लादेन के प्रति आग्रही सरोकार हो या फिर माकपा जैसी कम्युनिस्ट पार्टियों का लादेन के लिए अमेरिका को जिम्मेदार ठहराने की कुचेष्टा सभी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों मे गिरते नजर आते हैं।
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों को ध्यान में हमें रखना होगा। उतर प्रदेश विधान सभा चुनाव नजदीक है। सभी का ध्यान मुस्लिम वोट बैंक पर टिका हुआ है। राजनीतिक विश्लेषण में यह बात बार-बार बैठायी जा रही है कि उत्तर प्रदेश में मुस्लिम जिस ओर रूख करेंगे उसी की सत्ता बनेगी। कांग्रेस ने सच्चर कमेटी का लाभ पिछले लोकसभा चुनाव में उठा चुकी है। रामजन्म भूमि प्रकरण पर कांग्रेस का मुस्लिम वोट बैंक खाली हो चुका था। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में मुस्लिम संवर्ग को अपने पक्ष में करने की सफलता पायी थी और आश्चर्यजनक ढंग से सीटें जीती थी। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का खास ध्यान है। मुस्लिम समुदाय को रिझाने की अप्रत्यक्ष जिम्मेदारी दिग्विजय सिंह के पास है। अगर ऐसा नहीं होता तो अपनी ही सरकार की पुलिस द्वारा बटला हाउस कांड पर सवाल नहीं उठाते और आतंकवादियों के परिजनों से मिलने आजमगढ़ नहीं जाते। बटला हाउस कांड की विभिन्न एजेंसियों की जांच और न्यायिक जांच में पुलिस को क्लीन चिट दे दिया गया है फिर भी दिग्विजय सिंह बटला कांड पर सवाल उठाते रहे हैं। मुबंई हमले पर भी सवाल उठाकर पाकिस्तान को लाभार्थी बनाने की कोशिश करते हैं। कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह के बयान को यद्यपि खारिज कर दिया फिर भी कांग्रेस का मिशन यूपी और मिश्न मुस्लिम वोट बैंक की अप्रत्यक्ष नीतियां किसी भी परिस्थिति में जगजाहिर होने से बच नहीं पायेंगी?
राजनीतिक संवर्ग का तुष्टिकरण की नीति और आतंकवाद जैसी खतरनाक प्रवृति के समर्थन में खड़ा होने से मजहब आधारित संस्थाओं और शख्सियतों की शांति के खिलाफ मानसिकताएं पोषित होती हैं। कश्मीर में हुर्रियत जैसी राष्टविरोधी मजहबी संस्था के अध्यक्ष सैयद अली शाह गिलानी ने जब ओसामा बिन लादेन को आतंकवादी की जगह इस्लामिक सेनानी घोषित करता है और उसकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करता है तब कोई आवाज नहीं उठती है। हुरियत अली शाह गिलानी अकेले ऐसे मजहबी शख्सियत नहीं है जो आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को इस्लाम का सेनानी मानता हो। दुर्भाग्य यह है कि आज देश के अंदर में मजहबी रूढ़ियों और आतंकवादी विचारो के दफन करने की कोई राजनीतिक नीतियां नहीं हैं। आतंकवादियों को संरक्षण देने और उनके राष्टतोड़क बयानों और कृत्यों तक पर्दा डाला जाता है। अफजल गुरू और कसाब जैसे कई आतंकवादी आज हमारे जेलों में मेहमान की तरह एसोआराम से रह रहे हैं। उन्हें ‘चिकन बिरयाणी‘ खिलाया जा रहा है। इन्हें फांसी देने पर मुस्लिम संवर्ग का उफान और क्रोध का डर सताता है। बांग्लादेश ही नहीं बल्कि मिश्र जैसे मुस्लिम देश भी आतंक फैलाने वाले कई आतंकवादियों को फांसी पर चढाया है। उन्हें संख्यिाकी विविधता के आक्रोश का डर नहीं था।
राजनीतिक संवर्ग के स्वार्थ की पूर्ति तो अवश्व होती रहेगी और उनकी राजनीतिक सत्ता का स्थायीकरण होता रहेगा पर उस आग की लौ हमेशा हमारी धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को ही अपने आगोश में लेती रहेगी। पाकिस्तान की सामाजिक व्यवस्था आज पूरी तरह से इस्लामिक के उफानी और नरसंहारक विचारों के आगोश में क्यों समाया हुआ है? इसकी पडताल करनें है और पड़ताल से निकले यथार्थ और निष्कर्ष से भी सबक लेने की अनिवार्य जरूरत होनी चाहिए। पाकिस्तान में तानाशाही संवर्ग ने मजहबी और शरीयती आग लगायी थी। पोषण तानाशाही ही थी। खासकर तत्कालीन तानाशाह जियाउल हक ने पाकिस्तान में शरीयत लागू की थी और इस्लाम के उदार मूल्यों को दफन कर खतरनाक और बंधित समाज की नींव डाली थी। तानाशाही काल में पाकिस्तान की आवाम में विरोध की ज्वाला थी नहीं। आवाम भी समझ लिया था कि इस्लाम के खतरनाक मूल्यो से हम दुनिया को अपनी ओर झुका सकते हैं। कश्मीर को हड़प सकते हैं और भारत को तहस-नहस कर सकते हैं। प्रारंभिक काल में पाकिस्तान की खुशफहमी को बल जरूर मिला। अब उसका प्रतिफल पाकिस्तान को लहूलुहान कर रहा है। विकास की जगह गोलियां-बारूद और मानवबम की फोड़े जा रहे हैं। पाकिस्तान के इस हस्र को भारतीय राजनीतिक संवर्ग को सबक के तौर पर देखना चाहिए और तुष्टीकरण सहित वोट की राजनीति के लिए खतरनाक इस्लामिक विचारों के संरक्षण और बढावा देने के खेल से अलग होना चाहिए। पर ऐसा नहीं लगता कि भारतीय राजनीति खतरनाक इस्लामिक विचारों के बढावा देने की नीति बदलने को तैयार है। अगर ऐसा नहीं होता तो कांग्रेस सहित अन्य राजनीतिक पार्टियां ओसामा बिन लादेन के अंत के खिलाफ खड़ी होती?
Thursday, April 14, 2011
अनशन से अंग्रेज चले गए, अब भ्रष्टाचार की बारी
समाजसेवी अन्ना हजारे ने लोकपाल विधेयक में आमजन की भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए आमरण अनशन शुरू किया है। अन्ना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार निरोधी लोकपाल विधेयक का स्वरूप तय करने में नागरिक समाज को शामिल किया जाए और इसे मनवाने के लिए उन्होंने ‘गांधीवादी’ रास्ता अख्तियार करते हुए आमरण अनशन शुरू कर दिया है। अन्ना ने कहा है कि भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे नेताओं को कठघरे में खड़ा किया जाए, उन्हें सजा दी जाए और इस कार्यवाही में आमजन को भी भागीदारी दी जाए ताकि दोषी बचने न पाए।
अन्ना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के किसी भी मामले की जांच एक साल के भीतर पूरी हो जानी चाहिए और सजा कम से कम पांच साल तथा अधिकतम उम्रकैद होनी चाहिए, जबकि सरकारी प्रारूप में सजा कम से कम छह माह और अधिकतम सात वर्ष का प्रावधान है। हजारे कहते हैं कि सरकार लोगों के लिए कानून बनाना चाहती है। यदि वह इस बात को ध्यान में रखे बिना कानून बनाती है कि लोगों के दिमाग में क्या है, तो यह भारत में ब्रिटिश शासन के समान ही बुरा होगा। लेकिन प्रधानमंत्री ने लोकपाल विधेयक का स्वरूप तय करने के लिए नागरिक समाज के लोगों के साथ एक संयुक्त समिति गठित किए जाने की मांग अस्वीकार कर दी, पर उन्होंने यह जरूर कहा है कि वे हजारे और उनके मिशन का सम्मान करते हैं। उधर, कांग्रेस ने भी कह दिया है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने विधेयक पर चर्चा के लिए रक्षा मंत्री ए. के. एंटनी की अध्यक्षता में एक उप समिति बनाई है। जब विधेयक को लेकर प्रक्रिया जारी है ऐसे समय में इस तरह के रास्ते का चुनाव करना उचित नहीं है, सम्भवत: यह अनावश्यक है। हम हजारे का बहुत आदर करते हैं, लेकिन जो रास्ता उन्होंने चुना है वह ‘असामयिक’ है।
अब सवाल यह उठता है कि सामयिक क्या है? परिपक्व क्या है? कब किस समाज को खुद को बदलने के लिए या अपनी कमियों और बुराइयों को दूर करने के लिए जागना चाहिए?
एक समाजसेवी देश में फैले भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए कानून में समाज की भागीदारी चाहता है, उसे सरकार और सरकारी तंत्र पर पूरा भरोसा नहीं है, इसलिए वह चाहता है कि आम नागरिक भी उसमें अपनी भूमिका निभाए, लेकिन सरकार है कि उसकी प्रतिष्ठा का सम्मान करते हुए उसे नजरअंदाज करने पर तुली हुए है।
राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, 2 जी स्पेक्ट्रम, एस-बैंड, आईपीएल, भोपाल गैसकांड, आदर्श सोसायटी, विभिन्न राज्य सरकारों के जमीन आबंटन घोटाले, हसन अली, मधु कोड़ा, राजा, कलमाड़ी, ललित मोदी, राडिया, येदियुरप्पा, स्विस बैंक, कालाधन जैसे अनगिनत मुद्दे और नाम जब फिजाओं में घुले हुए हैं, तो किसी न किसी को कोई पहल तो करनी ही होगी। फिर ऐसी पहल ‘असामयिक’ कैसे हो सकती है?
क्या कांग्रेस यह कहना चाहती है कि सामयिक भ्रष्टाचार है और उससे सिर्फ सरकार ही निपटेगी और वह भी अपनी तरह से, उसमें जनता का क्या काम। जनता भ्रष्टाचार को जिस तरह अपने सामने घटता हुआ देख रही है; आगे भी देखती रहे और इंतजार करे कि सरकार क्या कदम उठाएगी।
बेशक कदम सरकार को ही उठाने होंगे और बड़े पैमाने पर उठाने होंगे। भ्रष्टाचार के कीचड़ में सने तंत्र को देखकर जिस देश के प्रधानमंत्री को यह कहना पड़ता हो कि भ्रष्टाचार से भारत की छवि को नुकसान पहुंचा है। भ्रष्टाचार सुशासन की जड़ पर प्रहार करता है। यह त्वरित विकास की दिशा में रुकावट है। यह सामाजिक समावेशिकरण के हमारे प्रयासों को बेअसर नहीं, तो हल्का अवश्य करता है। इससे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में हमारी छवि को नुकसान पहुंचता है और अपने ही लोगों में हमारी प्रतिष्ठा कम होती है; तो इससे यही साबित होता है कि आप अपनी वर्तमान यानी सामयिक स्थिति से बेहद खफा हैं, बेचैन हैं, लेकिन कहीं न कहीं लाचार भी हैं; वर्ना अब तक इसे खत्म करने के लिए बड़े पैमाने पर बड़े कदम क्यों नहीं उठाए गए।
जब जनता जागती है तो एक उसका क्रोध, उसकी बेचैनी, उसकी छटपटाहट एक आंदोलन का रूप ले लेती है। हमारी आजादी की लड़ाई इसका जीता-जागता उदाहरण है और हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े-लिखे को फारसी क्या, अभी हाल ही में हमारी जवान आंखों के सामने मिस्र, लीबिया, यमन, बहरीन जैसे देशों के भ्रष्ट शासनतंत्र को उखाड़ फेंकने के लिए त्रस्त, बेचैन, बेबस जनता ने आंदोलन छेड़ा, तो उनके फलते-फूलते, ऐशो-आराम में डूबे, शान की जिंदगी बसर करते, अथाह धन-दौलत दबाए, भरपूर पेट भरे और उन्हें सहलाते शासनाध्यक्षों ने दुम दबाकर भागने में ही भलाई समझी।
इन शासनाध्यक्षों के पेट भरे हुए हैं, इनका धन, जिसका रंग काला होता है, विदेशी बैंकों में दबा पड़ा है, इन्हें यह नहीं पता होता कि नौकरी, मजदूरी और मेहनत क्या होती है, इन्हें नहीं पता होता कि खेतों में किस तरह पसीना बहता है, अनाज किस तरह उगता है और न ही इन्हें खबर होती है कि भूख किस बला का नाम है।
फिर अगर इनके सामने अगर कोई भूख हड़ताल करता है, तो उसका असर क्या और किस तरह होगा, इस पर शंका ही जताई जा सकती है। खैर, अब शुरूआत हो ही गई है तो उम्मीद की जा सकती है कि ‘भूख’ उन भरपेट भ्रष्टाचारियों को वास्तविक ‘भूख’ का अहसास करवाए और उनकी अंतरात्मा जागे और उन्हें इस बात का अहसास हो कि हमने जिस धन को अपनी ‘बैठक’ के नीचे दबा रखा है; उससे देश के लाखों गरीबों और भुखमरों को ‘दो जून का निवाला’ मुहैया हो सकेगा।
अगर अन्ना जैसे गांधीवादी गांधीजी के मार्ग पर चलते हुए यह सोंचें कि भूख हड़ताल, अनशन, सत्याग्रह जैसे हथियारों से अंग्रेज तक देश छोड़कर भाग गए, तो फिर भ्रष्टाचार की क्या औकात; तो उनके आशावाद को सलाम!
Tuesday, January 25, 2011
सुरों को मिलाने वाली आवाज अब खामोश है !!!
सैकड़ों भाषाएं और अनगिनत बोलियों वाले देश के एक अरब लोगों को एक सुर में मिलाने वाली आवाज अब खामोश है.
जिन लोगों ने हिमालय से उतरती गंगा की उछलती धाराओं को छुआ है, रामेश्वरम के किनारों से टकराती लहरों का वेग देखा है और जिन्हें मरुस्थल के चमकते सूरज में जमीन पर तूफान उठाती गर्म हवाओं की तपिश का अहसास है, वो इस आवाज के खामोश होने के मतलब जानते हैं, और वो भी जिन्होंने दूरदर्शन पर मिले सुर मेरा तुम्हारा देखा है....
ख्याल की बंदिशों के साथ झूमती, इठलाती, गरजती और महकती आवाज के खामोश होने से उस राम को भी तकलीफ जरूर हुई होगी, जिसका गुणगान कर पंडित जी ने भजन गायकी की परंपरा को समृद्ध किया. शास्त्रीय संगीत की समझ वाले तो पंडित जी की गायकी पर रीझे ही, आम लोगों को भी अपने सुर से सम्मोहित करने में उन्हें ज्यादा वक्त नहीं लगा. हिंदी, कन्नड और मराठी संगीत में बराबर दखल रखने वाली पंडित जी की आवाज जब आलाप भरती, तो सुर और संगीत का ऐसा समागम होता कि जहां तक आवाज पहुंचती, भावनाओं का झंझावात लोगों को हैरान कर देता. शुद्ध कल्याण, मियां की तोड़ी, पुरिया धनश्री, मुल्तानी, भीमपलासी,रामकली ये सारे राग पंडित जी की आवाज से मिलकर संगीत का तूफान उठाते और लोगों को इसमें भीगने के सिवा कोई रास्ता नहीं दिखता. रात के घुमड़ते अंधेरे में क्या जादू है, ये तो बस उनसे पूछिए जिन्होंने पंडित भीमसेन जोशी को राग दरबारी गाते सुना है.
गायकी
हिंदुस्तानी संगीत की समृद्ध परंपरा से अभिभूत जोशी जी ने विरासत को मजबूत करने में ध्यान लगाया और नए प्रयोगों से बचते रहे. कर्नाटक संगीत के मजबूत स्तंभ एम. बालमुरलीकृष्णा के साथ जुगलबंदियों की सीरीज छोड़ दें, तो ऐसी मिसाल कम ही है. कम सरगम और ज्यादा आलाप के साथ सुरों से अठखेलियां करती उनकी आवाज लोगों के दिल में सीधे उतर जाती. इस आवाज में बादलों की गरज भी थी और शहद की मिठास भी. पंडित जी की तान ऊपर उठती तो पर्वतों को लांघ जाती और नीचे उतरती तो सागर की गहराई कम पड़ जाती.
संगीत शिक्षा
घर के किसी कोने में पड़े कीर्तन करने वाले दादा के तानपुरे को नया नया चलना सीखे कदमों ने ढूंढ लिया. उत्तरी कर्नाटक के गडग में कन्नाडिगा परिवार ने तभी जान लिया कि संगीत और भीमसेन के बीच गहरा रिश्ता है जो आने वाले दिनों में परवान चढ़ेगा. नन्हा सा ये बच्चा मस्जिद से आती अजान और सड़क से गुजरती भजन मंडलियों की आवाज सुनने दौड़कर घर से बाहर चला जाता.
उस्ताद अब्दुल करीम खान की ठुमरी पिया बिन आवत नहीं चैन सुन पंडित जी ने ठान लिया कि गवैया ही बनना है. महज 11 साल की उम्र में घर छोड़ दिया और संगीत साधना के लिए गुरु की तलाश में जु़ट गए. योग्य गुरु की तलाश में पूरे उत्तर भारत में जगह जगह भटकते रहे. इसी दौर में कुछ दिनों तक ग्वालियर में मशहूर सरोदवादक उस्ताद हाफिज अली खान के घर भी कुछ दिन रहे. तीन साल बाद पंडित जी के पिता ने उन्हें जालंधर में ढूंढ निकाला और घर ले आए. इसके बाद किराना घराना के पंडित रामभाउ कुंढोलकर ने उन्हें अपना शिष्य बनाया और उनकी संगीत शिक्षा शुरू हुई. यहां उनके साथ संगीत सीखने वालों में गंगूबाई हंगल भी थीं. इसी किराना घराना ने उनके भीतर गायकी के बीज को खाद-पानी और धूप-हवा देकर मजबूत पेड़ बनाया जिसकी जड़ें संगीत के जमीन में बहुत गहराई तक फैलती चली गईं. संगीत के जानकार इस घराने के अलावा उनके सुरों में उस्ताद आमिर खान साहब, बेखम अख्तर और केसर बाई केकर का असर भी महसूस करते हैं.
करियर
मुंबई में रेडियो पर उन्होंने 19 साल की उम्र में पहली बार गाया. म्यूजिक कंपनी एचएमवी ने जब पंडित जी का पहला अलबम लॉन्च किया तब उनकी उम्र केवल 22 साल थी.इस अलबम के साथ ही भारत के शास्त्रीय गायन में आने वाले कई दशकों के लिए एक ऐसी आवाज ने कदम रखे जिसकी आहट भर से संगीत समारोहों में सुर सज जाते. शास्त्रीय गायन, भक्ति संगीत के अलावा इसके अलावा कई फिल्मों के लिए भी उन्होंने गाने गाए.
पुरस्कार
भारत में संगीत से जुड़ा शायद ही कोई पुरस्कार होगा जो पंडित तक नहीं पहुंचा. 1972 में पद्रमश्री से इसकी शुरूआत हुई और भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारतरत्न इसमें सबसे नया है. तैराकी और बेहतरीन कारों के शौकीन पंडित भीमसेन जोशी ने 1985 में मिले सुर मेरा तुम्हारा को आवाज दी और राष्ट्रीय एकता की अपील करने वाला ये गीत अमर हो गया. युग बीते, दौर बीता और दुनिया कहां से कहां पहुंच गई पर पंडित जी की आवाज का जादू लोगों को लुभाता रहा. अब जब उन्होंने खामोशी की चादर ओढ़ ली है तो सारा जहान शोक में डूबा है सबके मन में सवाल है ये खामोशी कैसे टूटेगी. मेरे सुर से तुम्हारा सुर कौन मिलाएगा...
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शुभम
Wednesday, January 19, 2011
हर कोई प्रतिभावान
लेखक, कवि व साहित्यकार
तो पहले भी कई हुए!
अपने-अपने विचारों से
सबने पन्ने भी हैं भरे!
स्कूल, कालेजों में,
हमने भी उन्हें पढ़ा,
पर क्या आज तक उनके
कहने पे कोई चला?
हर किसी ने अपनी ही बात का
अनुसरण है किया!
क्योंकि हर कोई अपनी
दिल की कहानी लिखता है!
अपनी ही सोच को ख़ाली कर
आने वाली सोच का स्वागत करता है!
ये उसकी एक छोटी सी
कोशिश ही तो होती है!
यूँ समझो अपने साथ बीते
लम्हों की बात होती है !
क्योंकि इन्सान की सोच का
तो कोई अंत नहीं!
अगर कोई लिखने लगे, तो
दिनकर, प्रेमचंद जी से भी कोई कम नहीं!
हर किसी के पास
सोच का एक बड़ा खजाना है!
यूं समझो सबने अपने विचारों से
इतिहास को रचते जाना है!
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शुभम
तो पहले भी कई हुए!
अपने-अपने विचारों से
सबने पन्ने भी हैं भरे!
स्कूल, कालेजों में,
हमने भी उन्हें पढ़ा,
पर क्या आज तक उनके
कहने पे कोई चला?
हर किसी ने अपनी ही बात का
अनुसरण है किया!
क्योंकि हर कोई अपनी
दिल की कहानी लिखता है!
अपनी ही सोच को ख़ाली कर
आने वाली सोच का स्वागत करता है!
ये उसकी एक छोटी सी
कोशिश ही तो होती है!
यूँ समझो अपने साथ बीते
लम्हों की बात होती है !
क्योंकि इन्सान की सोच का
तो कोई अंत नहीं!
अगर कोई लिखने लगे, तो
दिनकर, प्रेमचंद जी से भी कोई कम नहीं!
हर किसी के पास
सोच का एक बड़ा खजाना है!
यूं समझो सबने अपने विचारों से
इतिहास को रचते जाना है!
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शुभम
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