Tuesday, December 28, 2010

क्या यह अफगानी महिलाओं का भविष्य है?


जिस महिला की तस्वीर आप देख रहे हैं उसका नाम है बीबी आयशा. इस अफगान महिला का यह चित्र अमेरीका की मशहूर समाचार पत्रिका टाइम के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुआ. मुखपृष्ठ का शीर्षक था - क्या होगा अगर हम अफगानिस्तान से चले जाएंगे. इस वाक्य के बाद कोई प्रश्नचिह्न नही लगा था जो काफी महत्वपूर्ण है.
तो क्या यह माना जाना चाहिए कि अफगानी महिलाओं का भविष्य अंधकारमय है और तालिबान का शासन खत्म हो जाने के बाद भी उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है? इस सवाल का जवाब हाँ और ना दोनों ही है.
ऊपरी तौर पर तालिबान आज अफगानिस्तान की सत्ता से बाहर हैं परंतु कथित तौर पर जनता के द्वारा चुनी हुई हामिद करज़ई के नैतृत्व वाली सरकार का आधार भी कोई बहुत बडा नहीं है और ना ही उसका पूरे देश पर नियंत्रण भी है. काबुल के बाहर का अफगानिस्तान काफी अलग है और वहाँ कबिलाई राज चलता है. ये कबीले तालिबान सहित कई कट्टरपंथी तत्वों के आदेशानुसार चलते हैं.
तालिबानी शासन के खात्मे के बाद से अफगानिस्तान की स्थिति में सुधार तो आया है परंतु काबुल के बाहर इस्लामी कट्टरपंथ के बढ रहे व्याप को महसूस किया जा सकता है. महिलाएँ पहले से अधिक स्वतंत्र जरूर हुई हैं. कुछ महिला मंत्री पद तक भी पहुच चुकी है. परंतु यह बदलाव ऊपरी तौर पर ही आया हुआ लगता है. अंदरूनी वास्तविकता काफी अलग और भयावह है.
अफगानिस्तान में कट्टरपंथ हावी हो रहा है और बीबी आयशा ऐसे ही कट्टरपंथ की शिकार हुई है. जब वह 12 वर्ष की थी तब उसके पिता ने उसे तथा उसकी बहन को एक तालीबानी लड़ाके को सौंप दिया था. उसके पिता के हाथों बीबी आयशा के होने वाले पति के एक रिश्तेदार का कत्ल हो गया था और उसकी भरपाई आयशा का हाथ तालीबानी लड़ाके के हाथ में देकर पूरी की गई.
वह लडाका आयशा को अर्गुज़ान ले गया जहाँ उसने उसके साथ विवाह किया. उस तालिबानी अधिकतर समय "इस्लाम" के कथित दुश्मनों से लड़ने में ही जाता था और बीबी आयशा पर उस तालिबानी के परिवार वाले अत्याचार करते थे. एक दिन आयशा घर छोड कर भाग गई और कंदहार पहुँच गई. एक वर्ष तक वह छिपती रही परंतु एक दिन उस तालिबानी लड़ाके ने उसे ढूंढ निकाला और उसे अर्गुजान ले आया.
इस्लामिक और कबिलाई रीति रिवाजों के अनुसार उस लड़ाके की नाक कट चुकी थी और उसकी भरपाई उसने आयशा के नाक और कान काट कर की. इस जघन्य कृत्य के बाद उसने आयशा को घायल अवस्था में ही छोड़ दिया. आयशा को याद नहीं कि वह कैसे वहाँ से भाग खड़ी हुई और अमेरीकी सहायता कार्यकर्ताओं की नजर में आई. ये कार्यकर्ता आयशा को एक सहायता केन्द्र ले आए. आयशा की जान बच गई परंतु उसका चेहरा बिगड चुका था.
अफगानिस्तान में अमेरीकी और ब्रिटिश स्वयंसेवी संस्थाओं ने अपनी अपनी सरकारों की मदद से ऐसे कई सहायता केन्द्र खोल रखे हैं जहाँ त्याग दी गई, तलाक दे दी गई या अत्याचार की शिकार महिलाओं को रखा जाता है और उन्हें अपने पैरों पर खडे होने की शिक्षा दी जाती है. वहाँ वे काम करती हैं और नई नई विधाएँ सिखती है. भारत की सेवा नामक संस्था भी ऐसा ही कार्य करती है.
परंतु ये सहायता केन्द्र भी अब कट्टरपंथियों की आँख की किरकिरी बनते जा रहे हैं. ये कट्टरपंथी इस तरह से प्रचार करते हैं कि अमेरिकियों ने सहायता केन्द्र के नाम पर वेश्यालय खोल रखे हैं और अफगानी महिलाओं का शोषण कर रहे हैं.
अफगानिस्तान के एक टीवी चैनल नूरीन टीवी पर प्रतिदिन 1 घंटे का सनीसनीखेज कार्यक्रम प्रसारित होता है. एक कट्टरपंथी द्वारा प्रस्तुत यह कार्यक्रम स्टिंग ओपरेशन के सहारे यह दिखाता है कि समाज में क्या गलत हो रहा है. ऐसी ही एक रिपोर्ट में दिखाया गया कि कैसे अमेरिकी अधिकारी इन सहायता केन्द्रों को वेश्यालय बना रहे हैं. हालाँकि पूरी रिपोर्ट के दौरान ऐसा एक भी फूटेज नहीं दिखाया गया जो इस बात को साबित कर सके. परंतु इसका जमकर प्रचार किया गया.
उधर अफगानी महिलाओं के लिए एक तरफ कुँआ और दूसरी तरफ खाई जैसी स्थिति हो गई है. वे कट्टरपंथ की शिकार हो रही हैं और उनके लिए सहायता केन्द्रों में रहना भी मुश्किल हो रहा है. उधर कई लोग ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि अमेरीका अफगानिस्तान छोडना नहीं चाहता और बीबी आयशा जैसी महिलाओं के उदाहरणों का इस्तेमाल कर गलत प्रचार कर रहा है. ऐसी महिलाओं को ढाल बनाकर भावनात्मक ब्लैकमेलिंग की जा रही है.
वास्तविकता चाहे जो हो परंतु बीबी आयशा के जीवन में कोई बदलाव नहीं आया है, तालिबानी शासन के दौर में भी और आज के अपेक्षाकृत मुक्त अफगानिस्तान में भी. फिलहाल आयशा अमेरीका में अपनी कॉस्मेटिक सर्जरी करवा रही हैं. एक संस्था ने इसका पूरा खर्च उठाने का बीड़ा उठाया है. परंतु आयशा अकेली नहीं है, ऐसी हजारों महिलाएँ अफगानी कट्टरपंथी समाज की जेल में कैद है.

माँ के दो रूप !!!

माँ, इस किरदार की जितनी भी व्याख्या हुई है, या की गयी है, उससे कहीं बड़ा है ये किरदार. ऐसी ही दो माओं से मैं मिला था. शायद पिछले साल

वो रोते थे और मैं....
प्रज्ञा रावत किरदार कम, माँ ज्यादा हैं. कोमल शब्दों में बयां करने का उनका तरीका हर किसी को मोह लेता है. जब उनसे मिला, तो लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहा हूँ. उनसे मुलाकात की याद पूरे-पूरे शब्दों में मुझे याद है. वही आप सबसे बाँट रहा हूँ..

सुबह 5.30 बजे से उठने के बाद मैं लगातार काम करती हूँ. रात 11 बजे तक घर, ऑफिस, बच्चे सबके लिए उपलब्ध रहती हूं। बच्चे बड़े हो गए हैं, समझदार हैं, मुझसे जुड़े हुए हैं। वे अपने दोस्तों के साथ जितना वक्त नहीं गुजारते, उतना मेरे साथ गुजारते हैं। लेकिन यह सब इतना आसान नहीं था। पति के गुज़र जाने के बाद मेरे लिए सबकुछ इतना आसान नहीं था। मैं इस समाज से लडऩे के लिए अकेली थी। मेरे सामने अपने परिवार को फिर से खड़ा करने की चुनौती थी। पर, यह परिस्थितियां हमेशा से ऐसी नहीं थी। खुशियां मेरे दामन में भी थीं।
सलिल से मेरी शादी 1987 में हुई। सलील बेहद खुशमिजाज थे। हमेशा मजाक करना, कुछ न कुछ गुनगुनाते रहना उनकी आदत थी। मेरे दोनों बेटे मल्हार और गुलाल के आने से घर की रौनक एकदम से बढ़ गई। हम सब बेहद खुश थे। जब मल्हार 14 साल और गुलाल मात्र 9 साल का था, तब अप्रैल 2002 में सलिल एक दुर्घटना के शिकार हो गए और हम सबको छोड़कर चले गए। जीवन जैसे एकदम से बदल गया। जिस घर में खुशियां तैरती थीं, वहां सन्नाटा पांव जमाने लगा। सलिल का जाना मुझे तोड़ रहा था, लेकिन बच्चों के लिए मुझे ज़िम्मेदारी अपने कन्धों पर उठानी पड़ी। अचानक हुए इस हादसे से हमें संभलने का मौका भी नहीं मिला। ऊपर से लोगों के वो चेहरे देखने मिले, जो शायद और किसी ने नहीं देखें होंगे। मुझे हर तरह से दबाने की कोशिश की गई, लेकिन औरत को धारा के विरुद्ध खड़ा होना ही पड़ता है। आज भी समाज में संवेदना के स्तर पर अकेली स्त्री को संघर्ष करना पड़ता है। लेकिन समय ने मुझे लोगों को पहचानना सीखा दिया। लोगों ने मान लिया था कि मैं पागल हो जाऊंगी, लेकिन उन्हें निराशा ही मिली। धीरे-धीरे स्थितियां काबू में आने लगीं। पुरानी नौकरी थी ही, फिर भी इस बीच मुझे शासकीय कॉलेज में प्राध्यापक की नौकरी मिल गई। पढऩे-पढ़ाने और लिखने का शौक बचपन से ही था, इसलिए कोई दिक्कत नहीं हुई। मैंने धीरे-धीरे स्थितियों और परेशानियों से बच्चों को दूर किया और उन्हें सिर्फ पढ़ाई पर ध्यान देने के लिए कहा। जब मेरे बड़े बेटे मल्हार का, जो बेहद समझदार है, बिना किसी कोचिंग के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाईन में सिलेक्शन हुआ, तो मुझे जैसे मेरे संघर्ष का इनाम मिल गया।
सलिल के जाने के बाद मेरे सामने अपने घर और बच्चों को संभालने की सबसे बड़ी चुनौती थी, जो मैंने काफी हद तक सफलतापूर्वक निभाई भी, लेकिन इस बीच जब भी मेरे अंदर भावनात्मक तूफान उठा, मैंने कलम का सहारा लिया। मेरे माता-पिता और बहनों ने हर पल मेरा साथ दिया। मुझे ऐसा परिवार मिला, इसके लिए मैं खुद को खुशनसीब मानती हूं। मुझे याद है, ऐसे ही एक दिन मैं उदास थी, तो पापा ने मुझे पढऩे के लिए एक किताब दी और कहा- ‘प्रज्ञा, जीवन में मुश्किलों मज़बूत बनाने के लिए आती हैं, इन पुस्तकों से दोस्ती करो और मन की अव्यक्त भावनाओं को कागज पर उतारो।’ उस दिन से मैंने कागज-कलम को अपना दोस्त बना लिया। हालाँकि कलम से मेरी दोस्ती पुरानी थी. आज मेरी कविताएं देशभर की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं और जल्द ही मेरा कविता संकलन आने वाला है।
मुझे लगता है कि जो होना था, तकदीर ने तय कर रखा था, वही हुआ और शायद आगे भी होगा। लेकिन मैंने हमेशा खुद को मज़बूत रखने की कोशिश की, ताकि मेरे बच्चों पर इसका कोई गलत असर न पड़े। मेरे पति खुशदिल थे, इसलिए मैंने कोशिश की कि उन्हें खुद में जिंदा रखने के लिए मुझे भी उनकी तरह हंसते रहना होगा। उन्हें (सलिल को) घर के बंद दरवाज़े, अंधेरा बिल्कुल भी पसंद नहीं था। घर को हमेशा सजाते-संवारते रहना उनका शौक था। मैंने भी वही किया। हमारे अपने जब हमें सांत्वना देने आते थे, तो आंसू बहाते थे,लेकिन हम तीनों(मैं और दोनों बेटे) उनके सामने हंस पड़ते थे। मैंने सलिल के जाने के बाद कभी भी घर में अंधेरा नहीं होने दिया और न ही दरवाज़े बंद किये,बल्कि मेरे घर का हर कोना रौशन है और दरवाज़े हमेशा खुले रहते हैं। आज कॉलेज से आने के बाद मेरा पूरा समय घर और बच्चों की परवरिश में जाता है। मैं आज जहां भी हूं, खुश हूं। मेरे बच्चे ही मेरी पूंजी है। उन्हें खुश रखना और उन्हें बेहतर भविष्य देना ही मेरा उद्देश्य है।
- प्रज्ञा रावत जी भोपाल में अंग्रेजी की प्राध्यापक हैं।

आज भी खेल रही हूं....

निर्मला जी से मेरी मुलाकात कुछ समय पहले हुई थी. बातचीत हुई तो लगा इतना कुछ खो देने के बाद भी इन्सान इतना शांत और संतुष्ट कैसे रह सकता है. ये मुलाकात कभी प्रकाशित तो नहीं हुई, लेकिन सब तक पहुंचा सकों, यही सोच कर सबके लिए उपलब्ध करवा रहा हूँ. आशा है, आप भी निर्मला जी के निर्मल मन से जुड़ेंगे...

आज मैं बिलकुल अकेली हूं। पति और बेटे के चले जाने के बाद अब मिट्टी से खेलना ही मेरा शेष जीवन है।
मेरी शादी 1968 में हुई। पति भी मेरी तरह अध्यापक थे। शादी के बाद हम दोनों पचमढ़ी आ गए और केंद्रीय विद्यालय में पढ़ाने लगे। वे अंग्रेजी पढ़ाते थे और मैं समाजशास्त्र। मेरे पति अपने कॉलेज के दिनों में मुंशी प्रेमचंद की बेटी कमलादेवी श्रीवास्तव के यहां सागर में रहकर पढाई करते थे। यहीं से उनमें लेखन के प्रति रुचि बढ़ी। वे कविताएं और नाटक लिखा करते थे। उनके मित्रों में कई साहित्यकार और कवि थे। घर पर अक्सर काव्यपाठ व साहित्यिक चर्चाएं गरम रहती थीं। अशोक बाजपेयी मेरे पति के खास मित्रों में थे। हम जब पचमढ़ी में थे, तो वहां हमने एक नाट्य समूह बनाया, जिसमें हमारे अलावा पचमढ़ी के कुछ स्थानीय लोग थे। नाटको में हिरोइन का रोल मुझे ही करना पड़ता था, क्योंकि उन दिनों कोई अपनी लड़की को नाटक वगैरह करने नहीं भेजता था। हमारे नाटकों से विद्यालय संगठन नाखुश था, इसलिए उन्होंने हम दोनों का तबादला विशाखापट्टनम कर दिया ताकि भाषा की समस्या आए और नाटक-नौंटकी खुद-ब-खुद बंद हो जाए। वहां हम 86 तक रहे। इस बीच मेरे पति का तबादला प्रमोशन के साथ राउरकेला कर दिया गया और मैं अपने बेटे देवाशीष के साथ अकेले रहने लगी।
मेरे बेटे देवाशीष को फौज में जाने का बहुत मन था। वह एनडीए का एक्जाम देना चाहता था, जिसके लिए मेरे पति ने हमेशा मना ही किया। फिर भी मैंने उनकी जगह दस्तखत कर बेटे को एक्जाम में बैठाया। वह पास भी हो गया, लेकिन मेडिकल टेस्ट में फेल हो गया। उसकी दृष्टि में दोष था। बेटे को काफी निराशा हुई। लेकिन फिर भी उसने आर्मी मेडिकल कोर का एक्जाम दिया और साथ ही गांधी मेडिकल कालेज भोपाल के लिए भी फॉर्म भर दिया। किस्मत देखिए कि उसका दोनों जगह सिलेक्शन हो गया। देवाशीष ने बिना समय गंवाएं आर्मी मेडिकल कोर जाना तय किया, जिसमें उसके पिता की भी रजामंदी शामिल थी। 1987 में उसे सेना में कमीशन मिल गया और उसे जम्मू नियुक्त किया गया।
जिस समय देवाशीष को जम्मू में कमीशन मिला, उस दौरान वहां आतंकवादी घटनाएं अपने चरम पर थी। ऐसे ही एक दिन एक ऑपरेशन के दौरान एक कमांडिंग ऑफिसर को गोली लग गई। बेटा अपने बेस पर था। उसे ऑपरेशन समाप्त हो गया है, कहकर जबरदस्ती घटनास्थल पर बुलाया गया, क्योंकि घायल अफसर इस हालत में नहीं थे कि वे हॉस्पीटल तक पहुंच पाएं। मेरा बेटा वहां गया और घायलों के इलाज में जुट गया। तभी एक आतंकवादी, जो किसी घर में अभी तक छुपा हुआ था, बच निकलने की कोशिश के दौरान मेरे बेटे से सामना हो गया और उसने उसे गोली मार दी। गोली लगने के कारण मेरा बेटा शहीद हो गया। जब यह सूचना आई, तो हम पति-पत्नी समझ नहीं पा रहे थे कि यह सब क्या हो गया? मेरे पति बेटे की मौत के लिए मुझे ही दोषी मानते रहे।
अब वह हमारे बीच नहीं था और हम दोनों ही रह गए थे। 2006 में मेरे पति भी चल बसे। मैं बिल्कुल अकेली पड़ गई। मुझे याद है वे जब अंतिम सांसें ले रहे थे, तो उन्होंने मुझसे कहा था, ‘काम में मन लगाना और न लगे तो खुद को कला से जोड़ लेना।’ स्कूल से आने के बाद मैं खाली रहती थी। अकेलेपन में घबराहट ने मुझे तोडऩा शुरू कर दिया था। इससे बचने के लिए मैं भारत भवन जाने लगी, जहां उन दिनों देश ·के जाने-माने लोगों का जमावड़ा रहता था। मैं घंटों वहां गुजारती, लोगों से बात करती। एक दिन ऐसे ही एक पारिवारिक मित्र ने यूं ही कह दिया- ‘समय बिताना है, तो मिट्टी से खेलना शुरू कर दो।’ बस खेल-खेल में मैं भी सिरेमिक आर्ट की तरफ मुड़ गई, पता ही नहीं चला। आज भी उसी मिट्टी से खेल रही हूं। मैं चेहरे नहीं बनाती, बल्कि पॉट्स बनाने लगी। पॉट्स में भी मैं ट्राइबल आर्ट को प्राथमिकता देती हूं। जितना समय यहां गुजरता है, उसमें कुछ नया बनाना और बच्चों को सिखाना मेरी दिनचर्या बन गया है।
मुझे बेटे के जाने का दुख तो है, लेकिन उसे सेना में भेजने का अफसोस नहीं। मुझे लगता है कि जो होना होता है, वो तो होकर रहता है, आप उसे बदल नहीं सकते। हां, आज भी जब भी आतंकवादियों और दहशतगर्दों को देखती हूं या कोई घटना का समाचार मिलता है, तो परेशान हो जाती हूं। लगता है, पता नहीं कितने निर्दोष बलि चढ़ेंगे, उनके परिवार का इसमें क्या दोष? सरकार को इनके प्रति कोई मानवता नहीं बरतनी चाहिए, क्योंकि इनके लिए मानवता जैसा शब्द नहीं है। मैं दूसरों से भी कहूंगी, अपने बच्चों को सेना में भेजिए।
रही बात, बची हुई कि ज़िन्दगी की, तो मैं जो कर रही हूँ, वही करते रहना चाहती हूं। अब और कुछ नहीं चाहिए। मेरे लिए जो कुछ भी नसीब में था, वो मिल गया। - निर्मला शर्मा