माँ, इस किरदार की जितनी भी व्याख्या हुई है, या की गयी है, उससे कहीं बड़ा है ये किरदार. ऐसी ही दो माओं से मैं मिला था. शायद पिछले साल
वो रोते थे और मैं....
प्रज्ञा रावत किरदार कम, माँ ज्यादा हैं. कोमल शब्दों में बयां करने का उनका तरीका हर किसी को मोह लेता है. जब उनसे मिला, तो लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहा हूँ. उनसे मुलाकात की याद पूरे-पूरे शब्दों में मुझे याद है. वही आप सबसे बाँट रहा हूँ..
सुबह 5.30 बजे से उठने के बाद मैं लगातार काम करती हूँ. रात 11 बजे तक घर, ऑफिस, बच्चे सबके लिए उपलब्ध रहती हूं। बच्चे बड़े हो गए हैं, समझदार हैं, मुझसे जुड़े हुए हैं। वे अपने दोस्तों के साथ जितना वक्त नहीं गुजारते, उतना मेरे साथ गुजारते हैं। लेकिन यह सब इतना आसान नहीं था। पति के गुज़र जाने के बाद मेरे लिए सबकुछ इतना आसान नहीं था। मैं इस समाज से लडऩे के लिए अकेली थी। मेरे सामने अपने परिवार को फिर से खड़ा करने की चुनौती थी। पर, यह परिस्थितियां हमेशा से ऐसी नहीं थी। खुशियां मेरे दामन में भी थीं।
सलिल से मेरी शादी 1987 में हुई। सलील बेहद खुशमिजाज थे। हमेशा मजाक करना, कुछ न कुछ गुनगुनाते रहना उनकी आदत थी। मेरे दोनों बेटे मल्हार और गुलाल के आने से घर की रौनक एकदम से बढ़ गई। हम सब बेहद खुश थे। जब मल्हार 14 साल और गुलाल मात्र 9 साल का था, तब अप्रैल 2002 में सलिल एक दुर्घटना के शिकार हो गए और हम सबको छोड़कर चले गए। जीवन जैसे एकदम से बदल गया। जिस घर में खुशियां तैरती थीं, वहां सन्नाटा पांव जमाने लगा। सलिल का जाना मुझे तोड़ रहा था, लेकिन बच्चों के लिए मुझे ज़िम्मेदारी अपने कन्धों पर उठानी पड़ी। अचानक हुए इस हादसे से हमें संभलने का मौका भी नहीं मिला। ऊपर से लोगों के वो चेहरे देखने मिले, जो शायद और किसी ने नहीं देखें होंगे। मुझे हर तरह से दबाने की कोशिश की गई, लेकिन औरत को धारा के विरुद्ध खड़ा होना ही पड़ता है। आज भी समाज में संवेदना के स्तर पर अकेली स्त्री को संघर्ष करना पड़ता है। लेकिन समय ने मुझे लोगों को पहचानना सीखा दिया। लोगों ने मान लिया था कि मैं पागल हो जाऊंगी, लेकिन उन्हें निराशा ही मिली। धीरे-धीरे स्थितियां काबू में आने लगीं। पुरानी नौकरी थी ही, फिर भी इस बीच मुझे शासकीय कॉलेज में प्राध्यापक की नौकरी मिल गई। पढऩे-पढ़ाने और लिखने का शौक बचपन से ही था, इसलिए कोई दिक्कत नहीं हुई। मैंने धीरे-धीरे स्थितियों और परेशानियों से बच्चों को दूर किया और उन्हें सिर्फ पढ़ाई पर ध्यान देने के लिए कहा। जब मेरे बड़े बेटे मल्हार का, जो बेहद समझदार है, बिना किसी कोचिंग के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाईन में सिलेक्शन हुआ, तो मुझे जैसे मेरे संघर्ष का इनाम मिल गया।
सलिल के जाने के बाद मेरे सामने अपने घर और बच्चों को संभालने की सबसे बड़ी चुनौती थी, जो मैंने काफी हद तक सफलतापूर्वक निभाई भी, लेकिन इस बीच जब भी मेरे अंदर भावनात्मक तूफान उठा, मैंने कलम का सहारा लिया। मेरे माता-पिता और बहनों ने हर पल मेरा साथ दिया। मुझे ऐसा परिवार मिला, इसके लिए मैं खुद को खुशनसीब मानती हूं। मुझे याद है, ऐसे ही एक दिन मैं उदास थी, तो पापा ने मुझे पढऩे के लिए एक किताब दी और कहा- ‘प्रज्ञा, जीवन में मुश्किलों मज़बूत बनाने के लिए आती हैं, इन पुस्तकों से दोस्ती करो और मन की अव्यक्त भावनाओं को कागज पर उतारो।’ उस दिन से मैंने कागज-कलम को अपना दोस्त बना लिया। हालाँकि कलम से मेरी दोस्ती पुरानी थी. आज मेरी कविताएं देशभर की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं और जल्द ही मेरा कविता संकलन आने वाला है।
मुझे लगता है कि जो होना था, तकदीर ने तय कर रखा था, वही हुआ और शायद आगे भी होगा। लेकिन मैंने हमेशा खुद को मज़बूत रखने की कोशिश की, ताकि मेरे बच्चों पर इसका कोई गलत असर न पड़े। मेरे पति खुशदिल थे, इसलिए मैंने कोशिश की कि उन्हें खुद में जिंदा रखने के लिए मुझे भी उनकी तरह हंसते रहना होगा। उन्हें (सलिल को) घर के बंद दरवाज़े, अंधेरा बिल्कुल भी पसंद नहीं था। घर को हमेशा सजाते-संवारते रहना उनका शौक था। मैंने भी वही किया। हमारे अपने जब हमें सांत्वना देने आते थे, तो आंसू बहाते थे,लेकिन हम तीनों(मैं और दोनों बेटे) उनके सामने हंस पड़ते थे। मैंने सलिल के जाने के बाद कभी भी घर में अंधेरा नहीं होने दिया और न ही दरवाज़े बंद किये,बल्कि मेरे घर का हर कोना रौशन है और दरवाज़े हमेशा खुले रहते हैं। आज कॉलेज से आने के बाद मेरा पूरा समय घर और बच्चों की परवरिश में जाता है। मैं आज जहां भी हूं, खुश हूं। मेरे बच्चे ही मेरी पूंजी है। उन्हें खुश रखना और उन्हें बेहतर भविष्य देना ही मेरा उद्देश्य है।
- प्रज्ञा रावत जी भोपाल में अंग्रेजी की प्राध्यापक हैं।
No comments:
Post a Comment