निर्मला जी से मेरी मुलाकात कुछ समय पहले हुई थी. बातचीत हुई तो लगा इतना कुछ खो देने के बाद भी इन्सान इतना शांत और संतुष्ट कैसे रह सकता है. ये मुलाकात कभी प्रकाशित तो नहीं हुई, लेकिन सब तक पहुंचा सकों, यही सोच कर सबके लिए उपलब्ध करवा रहा हूँ. आशा है, आप भी निर्मला जी के निर्मल मन से जुड़ेंगे...
आज मैं बिलकुल अकेली हूं। पति और बेटे के चले जाने के बाद अब मिट्टी से खेलना ही मेरा शेष जीवन है।
मेरी शादी 1968 में हुई। पति भी मेरी तरह अध्यापक थे। शादी के बाद हम दोनों पचमढ़ी आ गए और केंद्रीय विद्यालय में पढ़ाने लगे। वे अंग्रेजी पढ़ाते थे और मैं समाजशास्त्र। मेरे पति अपने कॉलेज के दिनों में मुंशी प्रेमचंद की बेटी कमलादेवी श्रीवास्तव के यहां सागर में रहकर पढाई करते थे। यहीं से उनमें लेखन के प्रति रुचि बढ़ी। वे कविताएं और नाटक लिखा करते थे। उनके मित्रों में कई साहित्यकार और कवि थे। घर पर अक्सर काव्यपाठ व साहित्यिक चर्चाएं गरम रहती थीं। अशोक बाजपेयी मेरे पति के खास मित्रों में थे। हम जब पचमढ़ी में थे, तो वहां हमने एक नाट्य समूह बनाया, जिसमें हमारे अलावा पचमढ़ी के कुछ स्थानीय लोग थे। नाटको में हिरोइन का रोल मुझे ही करना पड़ता था, क्योंकि उन दिनों कोई अपनी लड़की को नाटक वगैरह करने नहीं भेजता था। हमारे नाटकों से विद्यालय संगठन नाखुश था, इसलिए उन्होंने हम दोनों का तबादला विशाखापट्टनम कर दिया ताकि भाषा की समस्या आए और नाटक-नौंटकी खुद-ब-खुद बंद हो जाए। वहां हम 86 तक रहे। इस बीच मेरे पति का तबादला प्रमोशन के साथ राउरकेला कर दिया गया और मैं अपने बेटे देवाशीष के साथ अकेले रहने लगी।
मेरे बेटे देवाशीष को फौज में जाने का बहुत मन था। वह एनडीए का एक्जाम देना चाहता था, जिसके लिए मेरे पति ने हमेशा मना ही किया। फिर भी मैंने उनकी जगह दस्तखत कर बेटे को एक्जाम में बैठाया। वह पास भी हो गया, लेकिन मेडिकल टेस्ट में फेल हो गया। उसकी दृष्टि में दोष था। बेटे को काफी निराशा हुई। लेकिन फिर भी उसने आर्मी मेडिकल कोर का एक्जाम दिया और साथ ही गांधी मेडिकल कालेज भोपाल के लिए भी फॉर्म भर दिया। किस्मत देखिए कि उसका दोनों जगह सिलेक्शन हो गया। देवाशीष ने बिना समय गंवाएं आर्मी मेडिकल कोर जाना तय किया, जिसमें उसके पिता की भी रजामंदी शामिल थी। 1987 में उसे सेना में कमीशन मिल गया और उसे जम्मू नियुक्त किया गया।
जिस समय देवाशीष को जम्मू में कमीशन मिला, उस दौरान वहां आतंकवादी घटनाएं अपने चरम पर थी। ऐसे ही एक दिन एक ऑपरेशन के दौरान एक कमांडिंग ऑफिसर को गोली लग गई। बेटा अपने बेस पर था। उसे ऑपरेशन समाप्त हो गया है, कहकर जबरदस्ती घटनास्थल पर बुलाया गया, क्योंकि घायल अफसर इस हालत में नहीं थे कि वे हॉस्पीटल तक पहुंच पाएं। मेरा बेटा वहां गया और घायलों के इलाज में जुट गया। तभी एक आतंकवादी, जो किसी घर में अभी तक छुपा हुआ था, बच निकलने की कोशिश के दौरान मेरे बेटे से सामना हो गया और उसने उसे गोली मार दी। गोली लगने के कारण मेरा बेटा शहीद हो गया। जब यह सूचना आई, तो हम पति-पत्नी समझ नहीं पा रहे थे कि यह सब क्या हो गया? मेरे पति बेटे की मौत के लिए मुझे ही दोषी मानते रहे।
अब वह हमारे बीच नहीं था और हम दोनों ही रह गए थे। 2006 में मेरे पति भी चल बसे। मैं बिल्कुल अकेली पड़ गई। मुझे याद है वे जब अंतिम सांसें ले रहे थे, तो उन्होंने मुझसे कहा था, ‘काम में मन लगाना और न लगे तो खुद को कला से जोड़ लेना।’ स्कूल से आने के बाद मैं खाली रहती थी। अकेलेपन में घबराहट ने मुझे तोडऩा शुरू कर दिया था। इससे बचने के लिए मैं भारत भवन जाने लगी, जहां उन दिनों देश ·के जाने-माने लोगों का जमावड़ा रहता था। मैं घंटों वहां गुजारती, लोगों से बात करती। एक दिन ऐसे ही एक पारिवारिक मित्र ने यूं ही कह दिया- ‘समय बिताना है, तो मिट्टी से खेलना शुरू कर दो।’ बस खेल-खेल में मैं भी सिरेमिक आर्ट की तरफ मुड़ गई, पता ही नहीं चला। आज भी उसी मिट्टी से खेल रही हूं। मैं चेहरे नहीं बनाती, बल्कि पॉट्स बनाने लगी। पॉट्स में भी मैं ट्राइबल आर्ट को प्राथमिकता देती हूं। जितना समय यहां गुजरता है, उसमें कुछ नया बनाना और बच्चों को सिखाना मेरी दिनचर्या बन गया है।
मुझे बेटे के जाने का दुख तो है, लेकिन उसे सेना में भेजने का अफसोस नहीं। मुझे लगता है कि जो होना होता है, वो तो होकर रहता है, आप उसे बदल नहीं सकते। हां, आज भी जब भी आतंकवादियों और दहशतगर्दों को देखती हूं या कोई घटना का समाचार मिलता है, तो परेशान हो जाती हूं। लगता है, पता नहीं कितने निर्दोष बलि चढ़ेंगे, उनके परिवार का इसमें क्या दोष? सरकार को इनके प्रति कोई मानवता नहीं बरतनी चाहिए, क्योंकि इनके लिए मानवता जैसा शब्द नहीं है। मैं दूसरों से भी कहूंगी, अपने बच्चों को सेना में भेजिए।
रही बात, बची हुई कि ज़िन्दगी की, तो मैं जो कर रही हूँ, वही करते रहना चाहती हूं। अब और कुछ नहीं चाहिए। मेरे लिए जो कुछ भी नसीब में था, वो मिल गया। - निर्मला शर्मा
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