Tuesday, November 30, 2010

शब्दों के चित्रकार मुहम्मद अल्वी की एक बहुत पुरानी नज़्म मिली है मुझे. आप सब भी आनंद लीजिये.

यह रात और दिन
यह रात और दिन
भरी दोपहर
यह शामो-सहर
इन्हें देखकर
मुझे ऐसा लगता है
मैं जी रहा हूँ
मगर कोई है जो
कभी रात को
कभी दोपहर में
कभी शाम को
कभी मुह-अँधेरे
मेरे कान में
हिकारत* से कहता है (* तुच्छ्भाव)
तू मर रहा है
**************************************
और ये भी- मशवरा

मेरी जां इस कदर अंधे कुएं में
भला यूँ झाकने से क्या होगा.
कोई पत्थर उठाओ और फेंको
अगर पानी हुआ तो चीख उठेगा.

Friday, November 26, 2010

वाह, इतना दो टूक जवाब..!!!

आज कहने के लिए विषय अपने आप में परिपूर्ण है. विषय नहीं, ये सुखद समाचार है। नारी-शक्ति का एक मेट्रो संस्करण मामला प्रकाश में आया है. गुडगाँव की कुछ हिम्मतवाली महिलायों ने स्वयं के लिए रिजर्व कोच में जबरन घुसने वाले व्यक्ति की जमकर धुनाई कर दी। घटना गुरुवार रात की है। एक युवक जबरन महिलाओं के रिजर्व कोच में घुस गया। आरोप है कि उसने महिलाओं के साथ बदतमीजी भी की। हरियाणा पुलिस अचानक मेट्रो में दाखिल हुई, तो महिलाओं ने उसकी शिकायत कर दी।
पुलिस ने उस व्यक्ति को कोच से उतार दिया। इस दौरान इस शख्स को महिलाओं ने कई थप्पड़ जड़ दिए। महिला यात्रियों के साथ ही पुलिस ने भी अपने हाथ की खुजली मिटा ली.
वैसे एक बात जरुर है। ऐसे जितने भी मामले सामने आते है,महिलाएं एकजुट होकर विरोध करती है, कभी अकेली नहीं. क्यों? क्या आज भी किसी तरह का डर है? कारण जो भी हो, इस पर सोचना चाहिए. यदि यही कोशिश किसी अकेली महिला ने की होती, तो शायद बात कुछ और होती. लेकिन फिर भी, यह घटना उदाहरण है कि एकजुटता बेहद जरुरी है. हम हर कहीं, हर जगह एकजुट रहकर भी तो रह सकते है.
सोचकर देखिएगा. ऐसे किस्से तो गाहे-बगाहे सुनने मिल ही जायेंगे, पर वो दिन ज्यादा सुखद होगा, जिस दिन हम भीड़ में रहकर भी अकेले नहीं होंगे.
शुभम..

Wednesday, November 24, 2010

पीएम साहब क्या अब आप कुर्सी छोड़ेंगे?

अगर अब भी प्रधानमंत्री कार्यालय या केंद्र सरकार हटाए गए संचार मंत्री ए. राजा का बचाव करता है तब, क्षमा करेंगे, उन्हें सत्ता में बने रहने का कोई अधिकार नहीं है। मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने साफ शब्दों में कह दिया कि तथ्यों की मौजूदगी के बावजूद आरोपी मंत्री राजा के खिलाफ जानबूझकर कार्रवाई नहीं की गई। सुब्रमण्यम स्वामी ने राजा के खिलाफ मामला दर्ज किए जाने की अनुमति मांगी थी, जिस पर प्रधानमंत्री कार्यालय 2 साल निष्क्रिय बैठा रहा। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के विद्वान न्यायाधीश ने अत्यंत ही तल्खशब्दों में टिप्पणी की है कि स्वामी की शिकायत हवाई नहीं है। क्या इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि स्वयं प्रधानमंत्री ने ए. राजा को बचाने की कोशिश की? लगभग 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपयों के राजस्व घोटाले के मामले में 2 वर्षों तक चुप्पी स्वयं प्रधानमंत्री को कटघरे में खड़ा कर रही है। मीडिया द्वारा परत-दर-परत मामले को उभारने और संसद में विपक्ष के कड़े आक्रामक रवैये के बाद राजा से इस्तीफा तो ले लिया गया, किंतु इससे न तो राजा का अपराध खत्म हो जाता है और न ही मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी की अवधारणा के आधार पर प्रधानमंत्री सहित पूरा मंत्रिमंडल जिम्मेदारी से हाथ झटक सकता है। दोषी सभी हैं। प्रधानमंत्री अधिक! चूंकि 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला सन् 2009 में नए मंत्रिमंडल के गठन के पूर्व ही सार्वजनिक हो चुका था, मनमोहन सिंह ने अपने दूसरे मंत्रिमंडल में पुन: न केवल राजा को शामिल किया बल्कि वही दूरसंचार विभाग भी दे दिया, घोटाले में प्रधानमंत्री बराबर के भागीदार माने जाएंगे। सीबीआई और आयकर विभाग के दस्तावेज इस सवाल का जवाब देंगे। राजा ने कुख्यात फिक्सर नीरा राडिया की सहायता ली थी। सीबीआई दस्तावेजों के अनुसार राडिया ने राजा को मंत्री बनवाने और दूरसंचार विभाग ही दिलवाने में दो प्रख्यात पत्रकार बरखा दत्त और वीर सांगवी की मदद ली थी। इनकी कोशिशों के बाद ही राजा दूरसंचार विभाग के मंत्री बने। जाहिर है, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ऐसे प्रभाव या दबाव में ही राजा को पुन: मंत्री बनाया था। स्वच्छ छवि और किसी भी प्रभाव से इतर काम करने का दावा करनेवाले मनमोहन सिंह अगर सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर 2 साल चुप बैठे रहे तो क्या अचरज? 2-जी स्पेक्ट्रम जैसा महाघोटाला अगर फलता-पनपता रहा तो निश्चय ही प्रधानमंत्री की जानकारी में ही! प्रधानमंत्री इससे इन्कार नहीं कर सकते। कांग्रेस महासचिव राहुल गंाधी दावा करते रहे हैं कि सरकार में भ्रष्टाचारियों के लिए कोई स्थान नहीं है। भ्रष्टाचार को स्वयं अंजाम देना ही किसी को भ्रष्टाचारी नहीं बनाता, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष इसके मददगार भी भ्रष्टाचारी माने जाएंगे। क्या राहुल गांधी उपलब्ध तथ्यों के आधार पर प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांगेगे? ऐसी नैतिकता दिखाने का साहस राहुल में नहीं है। चूंकि मनमोहन सिंह ने केंद्र सरकार को बचाए रखने के लिए पहले मजबूरी में डीएमके के राजा को मंत्री बनाया और बाद में मजबूरी में उन्हें कायम रखा! कांग्रेस के अंदरूनी सूत्र जब यह तर्क देते हैं तो बड़ा दु:ख होता है। सत्ता में बने रहने के लिए भ्र्रष्टाचार के पक्ष में देशहित के साथ समझौता एक राष्ट्रीय अपराध है। डीएमके के सामने कांग्रेस का नतमस्तक होना एक त्रासदी से कम नहीं है। बता दूं कि यह वही कांग्रेस है जिसने 1997 में प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल की सरकार से सिर्फ इसलिए समर्थन वापस ले लिया था, क्योंकि उसमें डीएमके भी शामिल कर ली गई थी। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने तब कहा था कि जो डीएमके पार्टी उनके पति राजीव गांधी की हत्या की जिम्मेदार रही है, उससे युक्त सरकार को समर्थन कैसे दिया जा सकता है? तब सोनिया की बात ठीक लगी थी, लेकिन सत्ता पर कब्जा करने के लिए उसी सोनिया गांधी ने सन् 2004 में अपने पति की कथित हत्यारी डीएमके को सरकार में शामिल कर लिया! सत्ता पाने के लिए किसी भी हद तक समझौते का यह एक अत्यंत ही घृणित उदाहरण है। ऐसे में डीएमके के घोटालेबाज भ्रष्ट मंत्री के पापों पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह परदा डालते रहे तो सत्ता में बने रहने के मजबूरी के कारण ही!
और अंत में,आपसे निवेदन= ब्लॉग के विचारों को आपकी मदद की जरुरत है. अपनी राय दो टूक दें...मुझे आपसे इसी की उम्मीद है.

Tuesday, November 23, 2010

मैं क्यों कहूँ दो टूक?

एक पुरानी बात है, जो मेरे दादा*** ने मुझसे तब कही थी, जब मैं बोलने लगा था. उन्होंने कहा था '' बेटे, इन्सान को बोलना सीखने में दो साल लगते है, पर कब, कहाँ और क्या बोलना है, यह सीखने में पूरी उम्र निकल जाती है." बात में वाकई दम था. सोचा, अगर ऐसा ही है, तो क्यों न साफ -साफ़ बोलने की आदत अपनाई जाए. तो इस तरह से हम बेहूदे और बद-ज़ुबान हो गए. जब भी मुंह खोला, तो सामने वालों के मुंह बन गए, लेकिन हम खुश थे कि- हम दो टूक थे. एक आदरणीय*** ने सलाह दी, "कम बोलो, पर सार्थक बोलो.' हमने ये भी मान लिया और कुछ ही दिनों में भीड़ के चहेते बन गए, पर नुकसान बहुत हुआ दोस्तों, हाँ, सही कह रहा हूँ. और जब हुआ, मुझे पता चल गया कि बेटा अवि, तुम्हारी हिली, लेकिन हम फिर भी नहीं सुधरे. और सही कहें तो कभी सुधरेंगे भी नहीं. मेरी बॉस*** ने एक बार यूहीं कहा कि, इन्सान को हमेशा वैसे ही बना रहना चाहिए,जैसे वह मूल स्वभाव का है. किसी के लिए अलग नहीं, सबसे एक जैसा. बात जमीं और हमने तय कर लिया कि अब किसी साले के लिए नहीं बदलेंगे. *** (आप कहेंगे कि ये बीच-बीच में इसने कहा था, उसने कहा था का उल्लेख क्यों? तो दोस्तों, जीवन में जो किरदार आपका रास्ता तय करने में अहम् भूमिका निभाएं उन्हें सदा याद करते रहना चाहिए- ये मैं कहता हूँ.) ***
ये तो बात हुई कि दो टूक क्यों? अब दो टूक क्या? के बारे में भी कुछ सोच लें. अब चिट्ठा शुरू किया है तो कुछ न कुछ लिखना भी होगा. दो टूक के लिए आज के समय में विषयों की कमी नहीं. समाज, राजनीति, रिश्ते-नाते, सम्बन्ध, बहुत कुछ. तो बस हम भी कुछ इन्ही और इनके आसपास के विषयों को चुनने की कोशिश करेंगे. ये मेरी एक कोशिश है, खुद को परखने की, जो समय की जरुरत है, ऐसा मुझे लगता है. आप मेरा स्वतंत्र लेखन जाँच लीजिए. आमतौर पर जो ब्लॉग भाषा आप पढने के आदी है, माफ़ कीजियेगा वो नहीं परोस पाउँगा. मेरी भाषा अलग है और किसी जमात में शामिल होने के लिए मैं खुद की विशिष्टताओं को नहीं बदल सकता. इसलिए कुछ अलग तरह का होगा लेकिन अच्छा होगा, ये भरोसा दिला सकता हूँ. मेरा ये चिट्ठा कुछ हद तक बेबाक होगा, लेकिन सीमाओं के अन्दर. अपने 13 साल के पत्रकारिता जीवन में मैंने जिन भी वरिष्ठों के साथ काम किया है, उन्हें क्या आता था और मैं उनसे क्या सीखा है, इसे अपने ब्लॉग के पन्नों पर ज़ाहिर करने का प्रयास करूँगा. आप सभी से अनुरोध है कि अपनी प्रतिक्रिया और मार्गदर्शन दो टूक ज़ाहिर करें. मुझे बुरा सुनना अच्छा लगता है वो भी बड़ी बेशर्मी से...
तो चलिए दो टूक संवाद की शुरुआत करते हैं-
शुभम

Monday, November 22, 2010

बवाल बहुत है!!!

तू खुश होता है कि नहीं,
पर तेरे ख्वाब बहुत हैं।
यादों की लड़ियों मे तेरे,
पिछले बीते साल बहुत हैं।

मैं सोचता था हवा का पहलु-
किस तरफ है!
पर जहां भी देखो -
आरजू के सवाल बहुत हैं।

कभी खिलखिलाती धूप में -
सूरज से लड़ता!
तो कभी जगमगाती रौशनी के -
घावों से डरता।

शख्स हर कोई अपनी -
अनोखी शख्सियत है रखता।
पर तेरे वजूद के सिक्के -
बेमिसाल बहुत हैं।

क्या फर्क पड़ गया जो लगा-
एक कदम हूं लडखडाया।
क्यूं तर्क देना खुद को!
क्या खोया और क्या पाया।

ये प्यार की दुनिया है,
जो सिर्फ प्यार से चलती है।
ये आशाओं की पतवार भी है,
जो सिर्फ आसार से चलती है।

लिखता लिखता मैं,
जाने कहां पहुंच गया।
सुनता सुनता तू,
फिर नए ख्वाब को बुन गया।

तेरी ये अदा अब -
सिर्फ तू ही जाने,
लेकिन तेरी इस अदा पर -
बवाल बहुत हैं।