Tuesday, November 30, 2010

शब्दों के चित्रकार मुहम्मद अल्वी की एक बहुत पुरानी नज़्म मिली है मुझे. आप सब भी आनंद लीजिये.

यह रात और दिन
यह रात और दिन
भरी दोपहर
यह शामो-सहर
इन्हें देखकर
मुझे ऐसा लगता है
मैं जी रहा हूँ
मगर कोई है जो
कभी रात को
कभी दोपहर में
कभी शाम को
कभी मुह-अँधेरे
मेरे कान में
हिकारत* से कहता है (* तुच्छ्भाव)
तू मर रहा है
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और ये भी- मशवरा

मेरी जां इस कदर अंधे कुएं में
भला यूँ झाकने से क्या होगा.
कोई पत्थर उठाओ और फेंको
अगर पानी हुआ तो चीख उठेगा.

2 comments:

ManPreet Kaur said...

very nice....
mere blog par bhi kabhi aaiye waqt nikal kar..
Lyrics Mantra

nimish said...

very good like it
agar aapke paas alvi saab ka aur likhaa ho to jarur post karen