ज़माना लफ्फाजी का जरुर है लेकिन दो टूक कहना आज भी काफी फायदेमंद है. इस दौर को हाज़िर-नाजिर जानकर एक कोशिश साफ़-साफ़ कहने की.
Tuesday, December 28, 2010
क्या यह अफगानी महिलाओं का भविष्य है?
जिस महिला की तस्वीर आप देख रहे हैं उसका नाम है बीबी आयशा. इस अफगान महिला का यह चित्र अमेरीका की मशहूर समाचार पत्रिका टाइम के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुआ. मुखपृष्ठ का शीर्षक था - क्या होगा अगर हम अफगानिस्तान से चले जाएंगे. इस वाक्य के बाद कोई प्रश्नचिह्न नही लगा था जो काफी महत्वपूर्ण है.
तो क्या यह माना जाना चाहिए कि अफगानी महिलाओं का भविष्य अंधकारमय है और तालिबान का शासन खत्म हो जाने के बाद भी उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है? इस सवाल का जवाब हाँ और ना दोनों ही है.
ऊपरी तौर पर तालिबान आज अफगानिस्तान की सत्ता से बाहर हैं परंतु कथित तौर पर जनता के द्वारा चुनी हुई हामिद करज़ई के नैतृत्व वाली सरकार का आधार भी कोई बहुत बडा नहीं है और ना ही उसका पूरे देश पर नियंत्रण भी है. काबुल के बाहर का अफगानिस्तान काफी अलग है और वहाँ कबिलाई राज चलता है. ये कबीले तालिबान सहित कई कट्टरपंथी तत्वों के आदेशानुसार चलते हैं.
तालिबानी शासन के खात्मे के बाद से अफगानिस्तान की स्थिति में सुधार तो आया है परंतु काबुल के बाहर इस्लामी कट्टरपंथ के बढ रहे व्याप को महसूस किया जा सकता है. महिलाएँ पहले से अधिक स्वतंत्र जरूर हुई हैं. कुछ महिला मंत्री पद तक भी पहुच चुकी है. परंतु यह बदलाव ऊपरी तौर पर ही आया हुआ लगता है. अंदरूनी वास्तविकता काफी अलग और भयावह है.
अफगानिस्तान में कट्टरपंथ हावी हो रहा है और बीबी आयशा ऐसे ही कट्टरपंथ की शिकार हुई है. जब वह 12 वर्ष की थी तब उसके पिता ने उसे तथा उसकी बहन को एक तालीबानी लड़ाके को सौंप दिया था. उसके पिता के हाथों बीबी आयशा के होने वाले पति के एक रिश्तेदार का कत्ल हो गया था और उसकी भरपाई आयशा का हाथ तालीबानी लड़ाके के हाथ में देकर पूरी की गई.
वह लडाका आयशा को अर्गुज़ान ले गया जहाँ उसने उसके साथ विवाह किया. उस तालिबानी अधिकतर समय "इस्लाम" के कथित दुश्मनों से लड़ने में ही जाता था और बीबी आयशा पर उस तालिबानी के परिवार वाले अत्याचार करते थे. एक दिन आयशा घर छोड कर भाग गई और कंदहार पहुँच गई. एक वर्ष तक वह छिपती रही परंतु एक दिन उस तालिबानी लड़ाके ने उसे ढूंढ निकाला और उसे अर्गुजान ले आया.
इस्लामिक और कबिलाई रीति रिवाजों के अनुसार उस लड़ाके की नाक कट चुकी थी और उसकी भरपाई उसने आयशा के नाक और कान काट कर की. इस जघन्य कृत्य के बाद उसने आयशा को घायल अवस्था में ही छोड़ दिया. आयशा को याद नहीं कि वह कैसे वहाँ से भाग खड़ी हुई और अमेरीकी सहायता कार्यकर्ताओं की नजर में आई. ये कार्यकर्ता आयशा को एक सहायता केन्द्र ले आए. आयशा की जान बच गई परंतु उसका चेहरा बिगड चुका था.
अफगानिस्तान में अमेरीकी और ब्रिटिश स्वयंसेवी संस्थाओं ने अपनी अपनी सरकारों की मदद से ऐसे कई सहायता केन्द्र खोल रखे हैं जहाँ त्याग दी गई, तलाक दे दी गई या अत्याचार की शिकार महिलाओं को रखा जाता है और उन्हें अपने पैरों पर खडे होने की शिक्षा दी जाती है. वहाँ वे काम करती हैं और नई नई विधाएँ सिखती है. भारत की सेवा नामक संस्था भी ऐसा ही कार्य करती है.
परंतु ये सहायता केन्द्र भी अब कट्टरपंथियों की आँख की किरकिरी बनते जा रहे हैं. ये कट्टरपंथी इस तरह से प्रचार करते हैं कि अमेरिकियों ने सहायता केन्द्र के नाम पर वेश्यालय खोल रखे हैं और अफगानी महिलाओं का शोषण कर रहे हैं.
अफगानिस्तान के एक टीवी चैनल नूरीन टीवी पर प्रतिदिन 1 घंटे का सनीसनीखेज कार्यक्रम प्रसारित होता है. एक कट्टरपंथी द्वारा प्रस्तुत यह कार्यक्रम स्टिंग ओपरेशन के सहारे यह दिखाता है कि समाज में क्या गलत हो रहा है. ऐसी ही एक रिपोर्ट में दिखाया गया कि कैसे अमेरिकी अधिकारी इन सहायता केन्द्रों को वेश्यालय बना रहे हैं. हालाँकि पूरी रिपोर्ट के दौरान ऐसा एक भी फूटेज नहीं दिखाया गया जो इस बात को साबित कर सके. परंतु इसका जमकर प्रचार किया गया.
उधर अफगानी महिलाओं के लिए एक तरफ कुँआ और दूसरी तरफ खाई जैसी स्थिति हो गई है. वे कट्टरपंथ की शिकार हो रही हैं और उनके लिए सहायता केन्द्रों में रहना भी मुश्किल हो रहा है. उधर कई लोग ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि अमेरीका अफगानिस्तान छोडना नहीं चाहता और बीबी आयशा जैसी महिलाओं के उदाहरणों का इस्तेमाल कर गलत प्रचार कर रहा है. ऐसी महिलाओं को ढाल बनाकर भावनात्मक ब्लैकमेलिंग की जा रही है.
वास्तविकता चाहे जो हो परंतु बीबी आयशा के जीवन में कोई बदलाव नहीं आया है, तालिबानी शासन के दौर में भी और आज के अपेक्षाकृत मुक्त अफगानिस्तान में भी. फिलहाल आयशा अमेरीका में अपनी कॉस्मेटिक सर्जरी करवा रही हैं. एक संस्था ने इसका पूरा खर्च उठाने का बीड़ा उठाया है. परंतु आयशा अकेली नहीं है, ऐसी हजारों महिलाएँ अफगानी कट्टरपंथी समाज की जेल में कैद है.
माँ के दो रूप !!!
माँ, इस किरदार की जितनी भी व्याख्या हुई है, या की गयी है, उससे कहीं बड़ा है ये किरदार. ऐसी ही दो माओं से मैं मिला था. शायद पिछले साल
वो रोते थे और मैं....
प्रज्ञा रावत किरदार कम, माँ ज्यादा हैं. कोमल शब्दों में बयां करने का उनका तरीका हर किसी को मोह लेता है. जब उनसे मिला, तो लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहा हूँ. उनसे मुलाकात की याद पूरे-पूरे शब्दों में मुझे याद है. वही आप सबसे बाँट रहा हूँ..
सुबह 5.30 बजे से उठने के बाद मैं लगातार काम करती हूँ. रात 11 बजे तक घर, ऑफिस, बच्चे सबके लिए उपलब्ध रहती हूं। बच्चे बड़े हो गए हैं, समझदार हैं, मुझसे जुड़े हुए हैं। वे अपने दोस्तों के साथ जितना वक्त नहीं गुजारते, उतना मेरे साथ गुजारते हैं। लेकिन यह सब इतना आसान नहीं था। पति के गुज़र जाने के बाद मेरे लिए सबकुछ इतना आसान नहीं था। मैं इस समाज से लडऩे के लिए अकेली थी। मेरे सामने अपने परिवार को फिर से खड़ा करने की चुनौती थी। पर, यह परिस्थितियां हमेशा से ऐसी नहीं थी। खुशियां मेरे दामन में भी थीं।
सलिल से मेरी शादी 1987 में हुई। सलील बेहद खुशमिजाज थे। हमेशा मजाक करना, कुछ न कुछ गुनगुनाते रहना उनकी आदत थी। मेरे दोनों बेटे मल्हार और गुलाल के आने से घर की रौनक एकदम से बढ़ गई। हम सब बेहद खुश थे। जब मल्हार 14 साल और गुलाल मात्र 9 साल का था, तब अप्रैल 2002 में सलिल एक दुर्घटना के शिकार हो गए और हम सबको छोड़कर चले गए। जीवन जैसे एकदम से बदल गया। जिस घर में खुशियां तैरती थीं, वहां सन्नाटा पांव जमाने लगा। सलिल का जाना मुझे तोड़ रहा था, लेकिन बच्चों के लिए मुझे ज़िम्मेदारी अपने कन्धों पर उठानी पड़ी। अचानक हुए इस हादसे से हमें संभलने का मौका भी नहीं मिला। ऊपर से लोगों के वो चेहरे देखने मिले, जो शायद और किसी ने नहीं देखें होंगे। मुझे हर तरह से दबाने की कोशिश की गई, लेकिन औरत को धारा के विरुद्ध खड़ा होना ही पड़ता है। आज भी समाज में संवेदना के स्तर पर अकेली स्त्री को संघर्ष करना पड़ता है। लेकिन समय ने मुझे लोगों को पहचानना सीखा दिया। लोगों ने मान लिया था कि मैं पागल हो जाऊंगी, लेकिन उन्हें निराशा ही मिली। धीरे-धीरे स्थितियां काबू में आने लगीं। पुरानी नौकरी थी ही, फिर भी इस बीच मुझे शासकीय कॉलेज में प्राध्यापक की नौकरी मिल गई। पढऩे-पढ़ाने और लिखने का शौक बचपन से ही था, इसलिए कोई दिक्कत नहीं हुई। मैंने धीरे-धीरे स्थितियों और परेशानियों से बच्चों को दूर किया और उन्हें सिर्फ पढ़ाई पर ध्यान देने के लिए कहा। जब मेरे बड़े बेटे मल्हार का, जो बेहद समझदार है, बिना किसी कोचिंग के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाईन में सिलेक्शन हुआ, तो मुझे जैसे मेरे संघर्ष का इनाम मिल गया।
सलिल के जाने के बाद मेरे सामने अपने घर और बच्चों को संभालने की सबसे बड़ी चुनौती थी, जो मैंने काफी हद तक सफलतापूर्वक निभाई भी, लेकिन इस बीच जब भी मेरे अंदर भावनात्मक तूफान उठा, मैंने कलम का सहारा लिया। मेरे माता-पिता और बहनों ने हर पल मेरा साथ दिया। मुझे ऐसा परिवार मिला, इसके लिए मैं खुद को खुशनसीब मानती हूं। मुझे याद है, ऐसे ही एक दिन मैं उदास थी, तो पापा ने मुझे पढऩे के लिए एक किताब दी और कहा- ‘प्रज्ञा, जीवन में मुश्किलों मज़बूत बनाने के लिए आती हैं, इन पुस्तकों से दोस्ती करो और मन की अव्यक्त भावनाओं को कागज पर उतारो।’ उस दिन से मैंने कागज-कलम को अपना दोस्त बना लिया। हालाँकि कलम से मेरी दोस्ती पुरानी थी. आज मेरी कविताएं देशभर की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं और जल्द ही मेरा कविता संकलन आने वाला है।
मुझे लगता है कि जो होना था, तकदीर ने तय कर रखा था, वही हुआ और शायद आगे भी होगा। लेकिन मैंने हमेशा खुद को मज़बूत रखने की कोशिश की, ताकि मेरे बच्चों पर इसका कोई गलत असर न पड़े। मेरे पति खुशदिल थे, इसलिए मैंने कोशिश की कि उन्हें खुद में जिंदा रखने के लिए मुझे भी उनकी तरह हंसते रहना होगा। उन्हें (सलिल को) घर के बंद दरवाज़े, अंधेरा बिल्कुल भी पसंद नहीं था। घर को हमेशा सजाते-संवारते रहना उनका शौक था। मैंने भी वही किया। हमारे अपने जब हमें सांत्वना देने आते थे, तो आंसू बहाते थे,लेकिन हम तीनों(मैं और दोनों बेटे) उनके सामने हंस पड़ते थे। मैंने सलिल के जाने के बाद कभी भी घर में अंधेरा नहीं होने दिया और न ही दरवाज़े बंद किये,बल्कि मेरे घर का हर कोना रौशन है और दरवाज़े हमेशा खुले रहते हैं। आज कॉलेज से आने के बाद मेरा पूरा समय घर और बच्चों की परवरिश में जाता है। मैं आज जहां भी हूं, खुश हूं। मेरे बच्चे ही मेरी पूंजी है। उन्हें खुश रखना और उन्हें बेहतर भविष्य देना ही मेरा उद्देश्य है।
- प्रज्ञा रावत जी भोपाल में अंग्रेजी की प्राध्यापक हैं।
वो रोते थे और मैं....
प्रज्ञा रावत किरदार कम, माँ ज्यादा हैं. कोमल शब्दों में बयां करने का उनका तरीका हर किसी को मोह लेता है. जब उनसे मिला, तो लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहा हूँ. उनसे मुलाकात की याद पूरे-पूरे शब्दों में मुझे याद है. वही आप सबसे बाँट रहा हूँ..
सुबह 5.30 बजे से उठने के बाद मैं लगातार काम करती हूँ. रात 11 बजे तक घर, ऑफिस, बच्चे सबके लिए उपलब्ध रहती हूं। बच्चे बड़े हो गए हैं, समझदार हैं, मुझसे जुड़े हुए हैं। वे अपने दोस्तों के साथ जितना वक्त नहीं गुजारते, उतना मेरे साथ गुजारते हैं। लेकिन यह सब इतना आसान नहीं था। पति के गुज़र जाने के बाद मेरे लिए सबकुछ इतना आसान नहीं था। मैं इस समाज से लडऩे के लिए अकेली थी। मेरे सामने अपने परिवार को फिर से खड़ा करने की चुनौती थी। पर, यह परिस्थितियां हमेशा से ऐसी नहीं थी। खुशियां मेरे दामन में भी थीं।
सलिल से मेरी शादी 1987 में हुई। सलील बेहद खुशमिजाज थे। हमेशा मजाक करना, कुछ न कुछ गुनगुनाते रहना उनकी आदत थी। मेरे दोनों बेटे मल्हार और गुलाल के आने से घर की रौनक एकदम से बढ़ गई। हम सब बेहद खुश थे। जब मल्हार 14 साल और गुलाल मात्र 9 साल का था, तब अप्रैल 2002 में सलिल एक दुर्घटना के शिकार हो गए और हम सबको छोड़कर चले गए। जीवन जैसे एकदम से बदल गया। जिस घर में खुशियां तैरती थीं, वहां सन्नाटा पांव जमाने लगा। सलिल का जाना मुझे तोड़ रहा था, लेकिन बच्चों के लिए मुझे ज़िम्मेदारी अपने कन्धों पर उठानी पड़ी। अचानक हुए इस हादसे से हमें संभलने का मौका भी नहीं मिला। ऊपर से लोगों के वो चेहरे देखने मिले, जो शायद और किसी ने नहीं देखें होंगे। मुझे हर तरह से दबाने की कोशिश की गई, लेकिन औरत को धारा के विरुद्ध खड़ा होना ही पड़ता है। आज भी समाज में संवेदना के स्तर पर अकेली स्त्री को संघर्ष करना पड़ता है। लेकिन समय ने मुझे लोगों को पहचानना सीखा दिया। लोगों ने मान लिया था कि मैं पागल हो जाऊंगी, लेकिन उन्हें निराशा ही मिली। धीरे-धीरे स्थितियां काबू में आने लगीं। पुरानी नौकरी थी ही, फिर भी इस बीच मुझे शासकीय कॉलेज में प्राध्यापक की नौकरी मिल गई। पढऩे-पढ़ाने और लिखने का शौक बचपन से ही था, इसलिए कोई दिक्कत नहीं हुई। मैंने धीरे-धीरे स्थितियों और परेशानियों से बच्चों को दूर किया और उन्हें सिर्फ पढ़ाई पर ध्यान देने के लिए कहा। जब मेरे बड़े बेटे मल्हार का, जो बेहद समझदार है, बिना किसी कोचिंग के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाईन में सिलेक्शन हुआ, तो मुझे जैसे मेरे संघर्ष का इनाम मिल गया।
सलिल के जाने के बाद मेरे सामने अपने घर और बच्चों को संभालने की सबसे बड़ी चुनौती थी, जो मैंने काफी हद तक सफलतापूर्वक निभाई भी, लेकिन इस बीच जब भी मेरे अंदर भावनात्मक तूफान उठा, मैंने कलम का सहारा लिया। मेरे माता-पिता और बहनों ने हर पल मेरा साथ दिया। मुझे ऐसा परिवार मिला, इसके लिए मैं खुद को खुशनसीब मानती हूं। मुझे याद है, ऐसे ही एक दिन मैं उदास थी, तो पापा ने मुझे पढऩे के लिए एक किताब दी और कहा- ‘प्रज्ञा, जीवन में मुश्किलों मज़बूत बनाने के लिए आती हैं, इन पुस्तकों से दोस्ती करो और मन की अव्यक्त भावनाओं को कागज पर उतारो।’ उस दिन से मैंने कागज-कलम को अपना दोस्त बना लिया। हालाँकि कलम से मेरी दोस्ती पुरानी थी. आज मेरी कविताएं देशभर की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं और जल्द ही मेरा कविता संकलन आने वाला है।
मुझे लगता है कि जो होना था, तकदीर ने तय कर रखा था, वही हुआ और शायद आगे भी होगा। लेकिन मैंने हमेशा खुद को मज़बूत रखने की कोशिश की, ताकि मेरे बच्चों पर इसका कोई गलत असर न पड़े। मेरे पति खुशदिल थे, इसलिए मैंने कोशिश की कि उन्हें खुद में जिंदा रखने के लिए मुझे भी उनकी तरह हंसते रहना होगा। उन्हें (सलिल को) घर के बंद दरवाज़े, अंधेरा बिल्कुल भी पसंद नहीं था। घर को हमेशा सजाते-संवारते रहना उनका शौक था। मैंने भी वही किया। हमारे अपने जब हमें सांत्वना देने आते थे, तो आंसू बहाते थे,लेकिन हम तीनों(मैं और दोनों बेटे) उनके सामने हंस पड़ते थे। मैंने सलिल के जाने के बाद कभी भी घर में अंधेरा नहीं होने दिया और न ही दरवाज़े बंद किये,बल्कि मेरे घर का हर कोना रौशन है और दरवाज़े हमेशा खुले रहते हैं। आज कॉलेज से आने के बाद मेरा पूरा समय घर और बच्चों की परवरिश में जाता है। मैं आज जहां भी हूं, खुश हूं। मेरे बच्चे ही मेरी पूंजी है। उन्हें खुश रखना और उन्हें बेहतर भविष्य देना ही मेरा उद्देश्य है।
- प्रज्ञा रावत जी भोपाल में अंग्रेजी की प्राध्यापक हैं।
आज भी खेल रही हूं....
निर्मला जी से मेरी मुलाकात कुछ समय पहले हुई थी. बातचीत हुई तो लगा इतना कुछ खो देने के बाद भी इन्सान इतना शांत और संतुष्ट कैसे रह सकता है. ये मुलाकात कभी प्रकाशित तो नहीं हुई, लेकिन सब तक पहुंचा सकों, यही सोच कर सबके लिए उपलब्ध करवा रहा हूँ. आशा है, आप भी निर्मला जी के निर्मल मन से जुड़ेंगे...
आज मैं बिलकुल अकेली हूं। पति और बेटे के चले जाने के बाद अब मिट्टी से खेलना ही मेरा शेष जीवन है।
मेरी शादी 1968 में हुई। पति भी मेरी तरह अध्यापक थे। शादी के बाद हम दोनों पचमढ़ी आ गए और केंद्रीय विद्यालय में पढ़ाने लगे। वे अंग्रेजी पढ़ाते थे और मैं समाजशास्त्र। मेरे पति अपने कॉलेज के दिनों में मुंशी प्रेमचंद की बेटी कमलादेवी श्रीवास्तव के यहां सागर में रहकर पढाई करते थे। यहीं से उनमें लेखन के प्रति रुचि बढ़ी। वे कविताएं और नाटक लिखा करते थे। उनके मित्रों में कई साहित्यकार और कवि थे। घर पर अक्सर काव्यपाठ व साहित्यिक चर्चाएं गरम रहती थीं। अशोक बाजपेयी मेरे पति के खास मित्रों में थे। हम जब पचमढ़ी में थे, तो वहां हमने एक नाट्य समूह बनाया, जिसमें हमारे अलावा पचमढ़ी के कुछ स्थानीय लोग थे। नाटको में हिरोइन का रोल मुझे ही करना पड़ता था, क्योंकि उन दिनों कोई अपनी लड़की को नाटक वगैरह करने नहीं भेजता था। हमारे नाटकों से विद्यालय संगठन नाखुश था, इसलिए उन्होंने हम दोनों का तबादला विशाखापट्टनम कर दिया ताकि भाषा की समस्या आए और नाटक-नौंटकी खुद-ब-खुद बंद हो जाए। वहां हम 86 तक रहे। इस बीच मेरे पति का तबादला प्रमोशन के साथ राउरकेला कर दिया गया और मैं अपने बेटे देवाशीष के साथ अकेले रहने लगी।
मेरे बेटे देवाशीष को फौज में जाने का बहुत मन था। वह एनडीए का एक्जाम देना चाहता था, जिसके लिए मेरे पति ने हमेशा मना ही किया। फिर भी मैंने उनकी जगह दस्तखत कर बेटे को एक्जाम में बैठाया। वह पास भी हो गया, लेकिन मेडिकल टेस्ट में फेल हो गया। उसकी दृष्टि में दोष था। बेटे को काफी निराशा हुई। लेकिन फिर भी उसने आर्मी मेडिकल कोर का एक्जाम दिया और साथ ही गांधी मेडिकल कालेज भोपाल के लिए भी फॉर्म भर दिया। किस्मत देखिए कि उसका दोनों जगह सिलेक्शन हो गया। देवाशीष ने बिना समय गंवाएं आर्मी मेडिकल कोर जाना तय किया, जिसमें उसके पिता की भी रजामंदी शामिल थी। 1987 में उसे सेना में कमीशन मिल गया और उसे जम्मू नियुक्त किया गया।
जिस समय देवाशीष को जम्मू में कमीशन मिला, उस दौरान वहां आतंकवादी घटनाएं अपने चरम पर थी। ऐसे ही एक दिन एक ऑपरेशन के दौरान एक कमांडिंग ऑफिसर को गोली लग गई। बेटा अपने बेस पर था। उसे ऑपरेशन समाप्त हो गया है, कहकर जबरदस्ती घटनास्थल पर बुलाया गया, क्योंकि घायल अफसर इस हालत में नहीं थे कि वे हॉस्पीटल तक पहुंच पाएं। मेरा बेटा वहां गया और घायलों के इलाज में जुट गया। तभी एक आतंकवादी, जो किसी घर में अभी तक छुपा हुआ था, बच निकलने की कोशिश के दौरान मेरे बेटे से सामना हो गया और उसने उसे गोली मार दी। गोली लगने के कारण मेरा बेटा शहीद हो गया। जब यह सूचना आई, तो हम पति-पत्नी समझ नहीं पा रहे थे कि यह सब क्या हो गया? मेरे पति बेटे की मौत के लिए मुझे ही दोषी मानते रहे।
अब वह हमारे बीच नहीं था और हम दोनों ही रह गए थे। 2006 में मेरे पति भी चल बसे। मैं बिल्कुल अकेली पड़ गई। मुझे याद है वे जब अंतिम सांसें ले रहे थे, तो उन्होंने मुझसे कहा था, ‘काम में मन लगाना और न लगे तो खुद को कला से जोड़ लेना।’ स्कूल से आने के बाद मैं खाली रहती थी। अकेलेपन में घबराहट ने मुझे तोडऩा शुरू कर दिया था। इससे बचने के लिए मैं भारत भवन जाने लगी, जहां उन दिनों देश ·के जाने-माने लोगों का जमावड़ा रहता था। मैं घंटों वहां गुजारती, लोगों से बात करती। एक दिन ऐसे ही एक पारिवारिक मित्र ने यूं ही कह दिया- ‘समय बिताना है, तो मिट्टी से खेलना शुरू कर दो।’ बस खेल-खेल में मैं भी सिरेमिक आर्ट की तरफ मुड़ गई, पता ही नहीं चला। आज भी उसी मिट्टी से खेल रही हूं। मैं चेहरे नहीं बनाती, बल्कि पॉट्स बनाने लगी। पॉट्स में भी मैं ट्राइबल आर्ट को प्राथमिकता देती हूं। जितना समय यहां गुजरता है, उसमें कुछ नया बनाना और बच्चों को सिखाना मेरी दिनचर्या बन गया है।
मुझे बेटे के जाने का दुख तो है, लेकिन उसे सेना में भेजने का अफसोस नहीं। मुझे लगता है कि जो होना होता है, वो तो होकर रहता है, आप उसे बदल नहीं सकते। हां, आज भी जब भी आतंकवादियों और दहशतगर्दों को देखती हूं या कोई घटना का समाचार मिलता है, तो परेशान हो जाती हूं। लगता है, पता नहीं कितने निर्दोष बलि चढ़ेंगे, उनके परिवार का इसमें क्या दोष? सरकार को इनके प्रति कोई मानवता नहीं बरतनी चाहिए, क्योंकि इनके लिए मानवता जैसा शब्द नहीं है। मैं दूसरों से भी कहूंगी, अपने बच्चों को सेना में भेजिए।
रही बात, बची हुई कि ज़िन्दगी की, तो मैं जो कर रही हूँ, वही करते रहना चाहती हूं। अब और कुछ नहीं चाहिए। मेरे लिए जो कुछ भी नसीब में था, वो मिल गया। - निर्मला शर्मा
आज मैं बिलकुल अकेली हूं। पति और बेटे के चले जाने के बाद अब मिट्टी से खेलना ही मेरा शेष जीवन है।
मेरी शादी 1968 में हुई। पति भी मेरी तरह अध्यापक थे। शादी के बाद हम दोनों पचमढ़ी आ गए और केंद्रीय विद्यालय में पढ़ाने लगे। वे अंग्रेजी पढ़ाते थे और मैं समाजशास्त्र। मेरे पति अपने कॉलेज के दिनों में मुंशी प्रेमचंद की बेटी कमलादेवी श्रीवास्तव के यहां सागर में रहकर पढाई करते थे। यहीं से उनमें लेखन के प्रति रुचि बढ़ी। वे कविताएं और नाटक लिखा करते थे। उनके मित्रों में कई साहित्यकार और कवि थे। घर पर अक्सर काव्यपाठ व साहित्यिक चर्चाएं गरम रहती थीं। अशोक बाजपेयी मेरे पति के खास मित्रों में थे। हम जब पचमढ़ी में थे, तो वहां हमने एक नाट्य समूह बनाया, जिसमें हमारे अलावा पचमढ़ी के कुछ स्थानीय लोग थे। नाटको में हिरोइन का रोल मुझे ही करना पड़ता था, क्योंकि उन दिनों कोई अपनी लड़की को नाटक वगैरह करने नहीं भेजता था। हमारे नाटकों से विद्यालय संगठन नाखुश था, इसलिए उन्होंने हम दोनों का तबादला विशाखापट्टनम कर दिया ताकि भाषा की समस्या आए और नाटक-नौंटकी खुद-ब-खुद बंद हो जाए। वहां हम 86 तक रहे। इस बीच मेरे पति का तबादला प्रमोशन के साथ राउरकेला कर दिया गया और मैं अपने बेटे देवाशीष के साथ अकेले रहने लगी।
मेरे बेटे देवाशीष को फौज में जाने का बहुत मन था। वह एनडीए का एक्जाम देना चाहता था, जिसके लिए मेरे पति ने हमेशा मना ही किया। फिर भी मैंने उनकी जगह दस्तखत कर बेटे को एक्जाम में बैठाया। वह पास भी हो गया, लेकिन मेडिकल टेस्ट में फेल हो गया। उसकी दृष्टि में दोष था। बेटे को काफी निराशा हुई। लेकिन फिर भी उसने आर्मी मेडिकल कोर का एक्जाम दिया और साथ ही गांधी मेडिकल कालेज भोपाल के लिए भी फॉर्म भर दिया। किस्मत देखिए कि उसका दोनों जगह सिलेक्शन हो गया। देवाशीष ने बिना समय गंवाएं आर्मी मेडिकल कोर जाना तय किया, जिसमें उसके पिता की भी रजामंदी शामिल थी। 1987 में उसे सेना में कमीशन मिल गया और उसे जम्मू नियुक्त किया गया।
जिस समय देवाशीष को जम्मू में कमीशन मिला, उस दौरान वहां आतंकवादी घटनाएं अपने चरम पर थी। ऐसे ही एक दिन एक ऑपरेशन के दौरान एक कमांडिंग ऑफिसर को गोली लग गई। बेटा अपने बेस पर था। उसे ऑपरेशन समाप्त हो गया है, कहकर जबरदस्ती घटनास्थल पर बुलाया गया, क्योंकि घायल अफसर इस हालत में नहीं थे कि वे हॉस्पीटल तक पहुंच पाएं। मेरा बेटा वहां गया और घायलों के इलाज में जुट गया। तभी एक आतंकवादी, जो किसी घर में अभी तक छुपा हुआ था, बच निकलने की कोशिश के दौरान मेरे बेटे से सामना हो गया और उसने उसे गोली मार दी। गोली लगने के कारण मेरा बेटा शहीद हो गया। जब यह सूचना आई, तो हम पति-पत्नी समझ नहीं पा रहे थे कि यह सब क्या हो गया? मेरे पति बेटे की मौत के लिए मुझे ही दोषी मानते रहे।
अब वह हमारे बीच नहीं था और हम दोनों ही रह गए थे। 2006 में मेरे पति भी चल बसे। मैं बिल्कुल अकेली पड़ गई। मुझे याद है वे जब अंतिम सांसें ले रहे थे, तो उन्होंने मुझसे कहा था, ‘काम में मन लगाना और न लगे तो खुद को कला से जोड़ लेना।’ स्कूल से आने के बाद मैं खाली रहती थी। अकेलेपन में घबराहट ने मुझे तोडऩा शुरू कर दिया था। इससे बचने के लिए मैं भारत भवन जाने लगी, जहां उन दिनों देश ·के जाने-माने लोगों का जमावड़ा रहता था। मैं घंटों वहां गुजारती, लोगों से बात करती। एक दिन ऐसे ही एक पारिवारिक मित्र ने यूं ही कह दिया- ‘समय बिताना है, तो मिट्टी से खेलना शुरू कर दो।’ बस खेल-खेल में मैं भी सिरेमिक आर्ट की तरफ मुड़ गई, पता ही नहीं चला। आज भी उसी मिट्टी से खेल रही हूं। मैं चेहरे नहीं बनाती, बल्कि पॉट्स बनाने लगी। पॉट्स में भी मैं ट्राइबल आर्ट को प्राथमिकता देती हूं। जितना समय यहां गुजरता है, उसमें कुछ नया बनाना और बच्चों को सिखाना मेरी दिनचर्या बन गया है।
मुझे बेटे के जाने का दुख तो है, लेकिन उसे सेना में भेजने का अफसोस नहीं। मुझे लगता है कि जो होना होता है, वो तो होकर रहता है, आप उसे बदल नहीं सकते। हां, आज भी जब भी आतंकवादियों और दहशतगर्दों को देखती हूं या कोई घटना का समाचार मिलता है, तो परेशान हो जाती हूं। लगता है, पता नहीं कितने निर्दोष बलि चढ़ेंगे, उनके परिवार का इसमें क्या दोष? सरकार को इनके प्रति कोई मानवता नहीं बरतनी चाहिए, क्योंकि इनके लिए मानवता जैसा शब्द नहीं है। मैं दूसरों से भी कहूंगी, अपने बच्चों को सेना में भेजिए।
रही बात, बची हुई कि ज़िन्दगी की, तो मैं जो कर रही हूँ, वही करते रहना चाहती हूं। अब और कुछ नहीं चाहिए। मेरे लिए जो कुछ भी नसीब में था, वो मिल गया। - निर्मला शर्मा
Tuesday, November 30, 2010
शब्दों के चित्रकार मुहम्मद अल्वी की एक बहुत पुरानी नज़्म मिली है मुझे. आप सब भी आनंद लीजिये.
यह रात और दिन
यह रात और दिन
भरी दोपहर
यह शामो-सहर
इन्हें देखकर
मुझे ऐसा लगता है
मैं जी रहा हूँ
मगर कोई है जो
कभी रात को
कभी दोपहर में
कभी शाम को
कभी मुह-अँधेरे
मेरे कान में
हिकारत* से कहता है (* तुच्छ्भाव)
तू मर रहा है
**************************************
और ये भी- मशवरा
मेरी जां इस कदर अंधे कुएं में
भला यूँ झाकने से क्या होगा.
कोई पत्थर उठाओ और फेंको
अगर पानी हुआ तो चीख उठेगा.
यह रात और दिन
भरी दोपहर
यह शामो-सहर
इन्हें देखकर
मुझे ऐसा लगता है
मैं जी रहा हूँ
मगर कोई है जो
कभी रात को
कभी दोपहर में
कभी शाम को
कभी मुह-अँधेरे
मेरे कान में
हिकारत* से कहता है (* तुच्छ्भाव)
तू मर रहा है
**************************************
और ये भी- मशवरा
मेरी जां इस कदर अंधे कुएं में
भला यूँ झाकने से क्या होगा.
कोई पत्थर उठाओ और फेंको
अगर पानी हुआ तो चीख उठेगा.
Friday, November 26, 2010
वाह, इतना दो टूक जवाब..!!!
आज कहने के लिए विषय अपने आप में परिपूर्ण है. विषय नहीं, ये सुखद समाचार है। नारी-शक्ति का एक मेट्रो संस्करण मामला प्रकाश में आया है. गुडगाँव की कुछ हिम्मतवाली महिलायों ने स्वयं के लिए रिजर्व कोच में जबरन घुसने वाले व्यक्ति की जमकर धुनाई कर दी। घटना गुरुवार रात की है। एक युवक जबरन महिलाओं के रिजर्व कोच में घुस गया। आरोप है कि उसने महिलाओं के साथ बदतमीजी भी की। हरियाणा पुलिस अचानक मेट्रो में दाखिल हुई, तो महिलाओं ने उसकी शिकायत कर दी।
पुलिस ने उस व्यक्ति को कोच से उतार दिया। इस दौरान इस शख्स को महिलाओं ने कई थप्पड़ जड़ दिए। महिला यात्रियों के साथ ही पुलिस ने भी अपने हाथ की खुजली मिटा ली.
वैसे एक बात जरुर है। ऐसे जितने भी मामले सामने आते है,महिलाएं एकजुट होकर विरोध करती है, कभी अकेली नहीं. क्यों? क्या आज भी किसी तरह का डर है? कारण जो भी हो, इस पर सोचना चाहिए. यदि यही कोशिश किसी अकेली महिला ने की होती, तो शायद बात कुछ और होती. लेकिन फिर भी, यह घटना उदाहरण है कि एकजुटता बेहद जरुरी है. हम हर कहीं, हर जगह एकजुट रहकर भी तो रह सकते है.
सोचकर देखिएगा. ऐसे किस्से तो गाहे-बगाहे सुनने मिल ही जायेंगे, पर वो दिन ज्यादा सुखद होगा, जिस दिन हम भीड़ में रहकर भी अकेले नहीं होंगे.
शुभम..
पुलिस ने उस व्यक्ति को कोच से उतार दिया। इस दौरान इस शख्स को महिलाओं ने कई थप्पड़ जड़ दिए। महिला यात्रियों के साथ ही पुलिस ने भी अपने हाथ की खुजली मिटा ली.
वैसे एक बात जरुर है। ऐसे जितने भी मामले सामने आते है,महिलाएं एकजुट होकर विरोध करती है, कभी अकेली नहीं. क्यों? क्या आज भी किसी तरह का डर है? कारण जो भी हो, इस पर सोचना चाहिए. यदि यही कोशिश किसी अकेली महिला ने की होती, तो शायद बात कुछ और होती. लेकिन फिर भी, यह घटना उदाहरण है कि एकजुटता बेहद जरुरी है. हम हर कहीं, हर जगह एकजुट रहकर भी तो रह सकते है.
सोचकर देखिएगा. ऐसे किस्से तो गाहे-बगाहे सुनने मिल ही जायेंगे, पर वो दिन ज्यादा सुखद होगा, जिस दिन हम भीड़ में रहकर भी अकेले नहीं होंगे.
शुभम..
Wednesday, November 24, 2010
पीएम साहब क्या अब आप कुर्सी छोड़ेंगे?
अगर अब भी प्रधानमंत्री कार्यालय या केंद्र सरकार हटाए गए संचार मंत्री ए. राजा का बचाव करता है तब, क्षमा करेंगे, उन्हें सत्ता में बने रहने का कोई अधिकार नहीं है। मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने साफ शब्दों में कह दिया कि तथ्यों की मौजूदगी के बावजूद आरोपी मंत्री राजा के खिलाफ जानबूझकर कार्रवाई नहीं की गई। सुब्रमण्यम स्वामी ने राजा के खिलाफ मामला दर्ज किए जाने की अनुमति मांगी थी, जिस पर प्रधानमंत्री कार्यालय 2 साल निष्क्रिय बैठा रहा। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के विद्वान न्यायाधीश ने अत्यंत ही तल्खशब्दों में टिप्पणी की है कि स्वामी की शिकायत हवाई नहीं है। क्या इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि स्वयं प्रधानमंत्री ने ए. राजा को बचाने की कोशिश की? लगभग 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपयों के राजस्व घोटाले के मामले में 2 वर्षों तक चुप्पी स्वयं प्रधानमंत्री को कटघरे में खड़ा कर रही है। मीडिया द्वारा परत-दर-परत मामले को उभारने और संसद में विपक्ष के कड़े आक्रामक रवैये के बाद राजा से इस्तीफा तो ले लिया गया, किंतु इससे न तो राजा का अपराध खत्म हो जाता है और न ही मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी की अवधारणा के आधार पर प्रधानमंत्री सहित पूरा मंत्रिमंडल जिम्मेदारी से हाथ झटक सकता है। दोषी सभी हैं। प्रधानमंत्री अधिक! चूंकि 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला सन् 2009 में नए मंत्रिमंडल के गठन के पूर्व ही सार्वजनिक हो चुका था, मनमोहन सिंह ने अपने दूसरे मंत्रिमंडल में पुन: न केवल राजा को शामिल किया बल्कि वही दूरसंचार विभाग भी दे दिया, घोटाले में प्रधानमंत्री बराबर के भागीदार माने जाएंगे। सीबीआई और आयकर विभाग के दस्तावेज इस सवाल का जवाब देंगे। राजा ने कुख्यात फिक्सर नीरा राडिया की सहायता ली थी। सीबीआई दस्तावेजों के अनुसार राडिया ने राजा को मंत्री बनवाने और दूरसंचार विभाग ही दिलवाने में दो प्रख्यात पत्रकार बरखा दत्त और वीर सांगवी की मदद ली थी। इनकी कोशिशों के बाद ही राजा दूरसंचार विभाग के मंत्री बने। जाहिर है, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ऐसे प्रभाव या दबाव में ही राजा को पुन: मंत्री बनाया था। स्वच्छ छवि और किसी भी प्रभाव से इतर काम करने का दावा करनेवाले मनमोहन सिंह अगर सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर 2 साल चुप बैठे रहे तो क्या अचरज? 2-जी स्पेक्ट्रम जैसा महाघोटाला अगर फलता-पनपता रहा तो निश्चय ही प्रधानमंत्री की जानकारी में ही! प्रधानमंत्री इससे इन्कार नहीं कर सकते। कांग्रेस महासचिव राहुल गंाधी दावा करते रहे हैं कि सरकार में भ्रष्टाचारियों के लिए कोई स्थान नहीं है। भ्रष्टाचार को स्वयं अंजाम देना ही किसी को भ्रष्टाचारी नहीं बनाता, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष इसके मददगार भी भ्रष्टाचारी माने जाएंगे। क्या राहुल गांधी उपलब्ध तथ्यों के आधार पर प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांगेगे? ऐसी नैतिकता दिखाने का साहस राहुल में नहीं है। चूंकि मनमोहन सिंह ने केंद्र सरकार को बचाए रखने के लिए पहले मजबूरी में डीएमके के राजा को मंत्री बनाया और बाद में मजबूरी में उन्हें कायम रखा! कांग्रेस के अंदरूनी सूत्र जब यह तर्क देते हैं तो बड़ा दु:ख होता है। सत्ता में बने रहने के लिए भ्र्रष्टाचार के पक्ष में देशहित के साथ समझौता एक राष्ट्रीय अपराध है। डीएमके के सामने कांग्रेस का नतमस्तक होना एक त्रासदी से कम नहीं है। बता दूं कि यह वही कांग्रेस है जिसने 1997 में प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल की सरकार से सिर्फ इसलिए समर्थन वापस ले लिया था, क्योंकि उसमें डीएमके भी शामिल कर ली गई थी। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने तब कहा था कि जो डीएमके पार्टी उनके पति राजीव गांधी की हत्या की जिम्मेदार रही है, उससे युक्त सरकार को समर्थन कैसे दिया जा सकता है? तब सोनिया की बात ठीक लगी थी, लेकिन सत्ता पर कब्जा करने के लिए उसी सोनिया गांधी ने सन् 2004 में अपने पति की कथित हत्यारी डीएमके को सरकार में शामिल कर लिया! सत्ता पाने के लिए किसी भी हद तक समझौते का यह एक अत्यंत ही घृणित उदाहरण है। ऐसे में डीएमके के घोटालेबाज भ्रष्ट मंत्री के पापों पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह परदा डालते रहे तो सत्ता में बने रहने के मजबूरी के कारण ही!
और अंत में,आपसे निवेदन= ब्लॉग के विचारों को आपकी मदद की जरुरत है. अपनी राय दो टूक दें...मुझे आपसे इसी की उम्मीद है.
और अंत में,आपसे निवेदन= ब्लॉग के विचारों को आपकी मदद की जरुरत है. अपनी राय दो टूक दें...मुझे आपसे इसी की उम्मीद है.
Tuesday, November 23, 2010
मैं क्यों कहूँ दो टूक?
एक पुरानी बात है, जो मेरे दादा*** ने मुझसे तब कही थी, जब मैं बोलने लगा था. उन्होंने कहा था '' बेटे, इन्सान को बोलना सीखने में दो साल लगते है, पर कब, कहाँ और क्या बोलना है, यह सीखने में पूरी उम्र निकल जाती है." बात में वाकई दम था. सोचा, अगर ऐसा ही है, तो क्यों न साफ -साफ़ बोलने की आदत अपनाई जाए. तो इस तरह से हम बेहूदे और बद-ज़ुबान हो गए. जब भी मुंह खोला, तो सामने वालों के मुंह बन गए, लेकिन हम खुश थे कि- हम दो टूक थे. एक आदरणीय*** ने सलाह दी, "कम बोलो, पर सार्थक बोलो.' हमने ये भी मान लिया और कुछ ही दिनों में भीड़ के चहेते बन गए, पर नुकसान बहुत हुआ दोस्तों, हाँ, सही कह रहा हूँ. और जब हुआ, मुझे पता चल गया कि बेटा अवि, तुम्हारी हिली, लेकिन हम फिर भी नहीं सुधरे. और सही कहें तो कभी सुधरेंगे भी नहीं. मेरी बॉस*** ने एक बार यूहीं कहा कि, इन्सान को हमेशा वैसे ही बना रहना चाहिए,जैसे वह मूल स्वभाव का है. किसी के लिए अलग नहीं, सबसे एक जैसा. बात जमीं और हमने तय कर लिया कि अब किसी साले के लिए नहीं बदलेंगे. *** (आप कहेंगे कि ये बीच-बीच में इसने कहा था, उसने कहा था का उल्लेख क्यों? तो दोस्तों, जीवन में जो किरदार आपका रास्ता तय करने में अहम् भूमिका निभाएं उन्हें सदा याद करते रहना चाहिए- ये मैं कहता हूँ.) ***
ये तो बात हुई कि दो टूक क्यों? अब दो टूक क्या? के बारे में भी कुछ सोच लें. अब चिट्ठा शुरू किया है तो कुछ न कुछ लिखना भी होगा. दो टूक के लिए आज के समय में विषयों की कमी नहीं. समाज, राजनीति, रिश्ते-नाते, सम्बन्ध, बहुत कुछ. तो बस हम भी कुछ इन्ही और इनके आसपास के विषयों को चुनने की कोशिश करेंगे. ये मेरी एक कोशिश है, खुद को परखने की, जो समय की जरुरत है, ऐसा मुझे लगता है. आप मेरा स्वतंत्र लेखन जाँच लीजिए. आमतौर पर जो ब्लॉग भाषा आप पढने के आदी है, माफ़ कीजियेगा वो नहीं परोस पाउँगा. मेरी भाषा अलग है और किसी जमात में शामिल होने के लिए मैं खुद की विशिष्टताओं को नहीं बदल सकता. इसलिए कुछ अलग तरह का होगा लेकिन अच्छा होगा, ये भरोसा दिला सकता हूँ. मेरा ये चिट्ठा कुछ हद तक बेबाक होगा, लेकिन सीमाओं के अन्दर. अपने 13 साल के पत्रकारिता जीवन में मैंने जिन भी वरिष्ठों के साथ काम किया है, उन्हें क्या आता था और मैं उनसे क्या सीखा है, इसे अपने ब्लॉग के पन्नों पर ज़ाहिर करने का प्रयास करूँगा. आप सभी से अनुरोध है कि अपनी प्रतिक्रिया और मार्गदर्शन दो टूक ज़ाहिर करें. मुझे बुरा सुनना अच्छा लगता है वो भी बड़ी बेशर्मी से...
तो चलिए दो टूक संवाद की शुरुआत करते हैं-
शुभम
ये तो बात हुई कि दो टूक क्यों? अब दो टूक क्या? के बारे में भी कुछ सोच लें. अब चिट्ठा शुरू किया है तो कुछ न कुछ लिखना भी होगा. दो टूक के लिए आज के समय में विषयों की कमी नहीं. समाज, राजनीति, रिश्ते-नाते, सम्बन्ध, बहुत कुछ. तो बस हम भी कुछ इन्ही और इनके आसपास के विषयों को चुनने की कोशिश करेंगे. ये मेरी एक कोशिश है, खुद को परखने की, जो समय की जरुरत है, ऐसा मुझे लगता है. आप मेरा स्वतंत्र लेखन जाँच लीजिए. आमतौर पर जो ब्लॉग भाषा आप पढने के आदी है, माफ़ कीजियेगा वो नहीं परोस पाउँगा. मेरी भाषा अलग है और किसी जमात में शामिल होने के लिए मैं खुद की विशिष्टताओं को नहीं बदल सकता. इसलिए कुछ अलग तरह का होगा लेकिन अच्छा होगा, ये भरोसा दिला सकता हूँ. मेरा ये चिट्ठा कुछ हद तक बेबाक होगा, लेकिन सीमाओं के अन्दर. अपने 13 साल के पत्रकारिता जीवन में मैंने जिन भी वरिष्ठों के साथ काम किया है, उन्हें क्या आता था और मैं उनसे क्या सीखा है, इसे अपने ब्लॉग के पन्नों पर ज़ाहिर करने का प्रयास करूँगा. आप सभी से अनुरोध है कि अपनी प्रतिक्रिया और मार्गदर्शन दो टूक ज़ाहिर करें. मुझे बुरा सुनना अच्छा लगता है वो भी बड़ी बेशर्मी से...
तो चलिए दो टूक संवाद की शुरुआत करते हैं-
शुभम
Monday, November 22, 2010
बवाल बहुत है!!!
तू खुश होता है कि नहीं,
पर तेरे ख्वाब बहुत हैं।
यादों की लड़ियों मे तेरे,
पिछले बीते साल बहुत हैं।
मैं सोचता था हवा का पहलु-
किस तरफ है!
पर जहां भी देखो -
आरजू के सवाल बहुत हैं।
कभी खिलखिलाती धूप में -
सूरज से लड़ता!
तो कभी जगमगाती रौशनी के -
घावों से डरता।
शख्स हर कोई अपनी -
अनोखी शख्सियत है रखता।
पर तेरे वजूद के सिक्के -
बेमिसाल बहुत हैं।
क्या फर्क पड़ गया जो लगा-
एक कदम हूं लडखडाया।
क्यूं तर्क देना खुद को!
क्या खोया और क्या पाया।
ये प्यार की दुनिया है,
जो सिर्फ प्यार से चलती है।
ये आशाओं की पतवार भी है,
जो सिर्फ आसार से चलती है।
लिखता लिखता मैं,
जाने कहां पहुंच गया।
सुनता सुनता तू,
फिर नए ख्वाब को बुन गया।
तेरी ये अदा अब -
सिर्फ तू ही जाने,
लेकिन तेरी इस अदा पर -
बवाल बहुत हैं।
पर तेरे ख्वाब बहुत हैं।
यादों की लड़ियों मे तेरे,
पिछले बीते साल बहुत हैं।
मैं सोचता था हवा का पहलु-
किस तरफ है!
पर जहां भी देखो -
आरजू के सवाल बहुत हैं।
कभी खिलखिलाती धूप में -
सूरज से लड़ता!
तो कभी जगमगाती रौशनी के -
घावों से डरता।
शख्स हर कोई अपनी -
अनोखी शख्सियत है रखता।
पर तेरे वजूद के सिक्के -
बेमिसाल बहुत हैं।
क्या फर्क पड़ गया जो लगा-
एक कदम हूं लडखडाया।
क्यूं तर्क देना खुद को!
क्या खोया और क्या पाया।
ये प्यार की दुनिया है,
जो सिर्फ प्यार से चलती है।
ये आशाओं की पतवार भी है,
जो सिर्फ आसार से चलती है।
लिखता लिखता मैं,
जाने कहां पहुंच गया।
सुनता सुनता तू,
फिर नए ख्वाब को बुन गया।
तेरी ये अदा अब -
सिर्फ तू ही जाने,
लेकिन तेरी इस अदा पर -
बवाल बहुत हैं।
Sunday, January 24, 2010
नमस्ते ! आप सब को ...
जनवरी २३ 2010, भोपाल
मैं अविनाश हूँ। भोपाल की आबो-हवा में सांसें लेता और उसी को वापस कर देता हूँ।
ब्लॉग लिखना, काफी मुश्किल था। हिम्मत नहीं थी। दूसरों की तरह जुगाली करना मकसद नहीं था, इसलिए लगा ठीक है, अगर कोई नहीं पढ़ेगा, तो खुद पढ़ लेंगे। आखिर लिख भी तो सिर्फ अपने लिए रहा हूँ। इसका श्रेय मैं एक ऐसे इन्सान को देना चाहूँगा, जो हर वक़्त खुद को किसी भी किरदार में बड़ी आसानी से गढ़ लेता है. लेकिन सब के लिए नहीं, सिर्फ अपनों के लिए।
बातचीत में एक दिन यूँ ही उन्होंने कहा कि अगर खुद से कोई शिकायत है और वजह खोजना मुश्किल हो रहा हो, तो लिखना शुरू करो. बस लगा, जैसे सही ही तो कह रही हैं. कहने के लिए वो मेरी बड़ी हैं, हर तरह से. उन्होंने लिखने का और खुद से नाराज़गी दूर करने का जो तरीका बताया, वो जच गया. और आज मैं खुद, अपने लिए और अपने आप पर लिख रहा हूँ। वैसे अपने इस कोने को मैंने २००९ में जीवन दिया था। समय ने समय ही नहीं दिया कि लिख सकूँ. आज फिर दोबारा कोशिश कर रहा हूँ, वो भी बड़ी हिम्मत से...!
मैं नहीं जनता की जो भी मैं लिख रहा हूँ, वो कोई पढ़ेगा भी या नहीं, लेकिन ये मेरा उद्देश्य नहीं है. लिखकर और खुद पढ़कर अगर खुद को बदल सका, तो ब्लॉगिंग की जय जय..
वरना लड़ने के लिए मैं खुद उपलब्ध हूँ ही।
लिखना शुरू कर रहा हूँ... आज से..।
कुछ सवाल जो परेशान कर कर रहे थे, उन्हें दिमाग से इस मशीनी दिमाग में डाल रहा हूँ।
अब आगे जो होगा देखेंगे..
ठीक है न!
शुरू करते है...
श्री गणेश करते है.
जनवरी 24 2010 , भोपाल/
नमस्ते
आपसे और पहली बार खुद से मिलकर कुछ अच्छा लग रहा है, आज काफी दिनों से मेरे अन्दर कुछ चल रहा था, खोजने पर कुछ सवाल थे, जिनमें से कुछ औरों से थे और कुछ खुद से... जिनसे पूछना है उनके लिए समय का इंतज़ार कर रहा हूँ। हाँ, अपने सवाल-जवाब से जरुर निकलना चाहता हूँ। इसलिए आज लिखने का मन किया. सवालो की अपनी खोज शुरू करता हूँ।
१- तुम कौन हो और तुम्हारे होने का मकसद क्या है?
थोडा सोचा...३ दिन लगे जवाब सोचने में. अब मजाक मत समझिये क्योंकि खुद को पहचानने और होने के कारणों की खोज करना इतना आसान काम नहीं है. खैर जवाब मिल गया. "मैं अपने घर का बड़ा बेटा हूँ, जो खुद को समझदार समझता है लेकिन वास्तव में है नहीं। वो सुबह उठता है, दिन भर के कामों को अख़बार पलटते हुए तय करता है, जिन लोगो का ज़िक्र इस सोच में आता है, उनके प्रति उस दिन की विचारधारा बनाता है और घर वालों पर टूट पड़ता है, ऑफिस आता है, जहाँ उसकी एक तय जगह है, लोग है, काम है, हँसतें-रुठते मुंह बनाते दिन निकालता है और वापस घर चला जाता है। "
उसके यानि मेरे होने का मकसद मुझसे खुद से क्यों जुदा है? यह सोचकर थोडा अजीब लगता है. आज से पहले यानि इस सवाल का जवाब खोजने से पहले इतना अजीब कभी नहीं लगा। खैर, मकसद जो मिला, वो दूसरों से जुदा था. कोई चाहता है, मैं ये करूँ, वो करूँ। कोई चाहता है ये बन जाओ, वो बन जाओ, कोई तो ऐसे भी है, जो देखते ही कह उठते है, ' जब से आया है, जीना-हराम कर दिया है, उनसे मेरा होना हज़म नहीं होता। घर में सभी चाहते है कि मैं आगे जाओ, कुछ बनूँ, लेकिन उन्हें शक है कि खुद कुछ न बिगाड़ ले।
लगता नहीं है कि सवाल का सही जवाब खोज पाया हूँ। बस जो खोजा है लिख रहा हूँ ।
सवाल कुछ और है लेकिन आज के लिए बस...
घर जाना है, खाना खाना है, सोना है ताकि कल उठ सकूँ।
चलता हूँ।
मिलते रहूँगा,
और कहाँ जाऊंगा.
शुभम ...
मैं अविनाश हूँ। भोपाल की आबो-हवा में सांसें लेता और उसी को वापस कर देता हूँ।
ब्लॉग लिखना, काफी मुश्किल था। हिम्मत नहीं थी। दूसरों की तरह जुगाली करना मकसद नहीं था, इसलिए लगा ठीक है, अगर कोई नहीं पढ़ेगा, तो खुद पढ़ लेंगे। आखिर लिख भी तो सिर्फ अपने लिए रहा हूँ। इसका श्रेय मैं एक ऐसे इन्सान को देना चाहूँगा, जो हर वक़्त खुद को किसी भी किरदार में बड़ी आसानी से गढ़ लेता है. लेकिन सब के लिए नहीं, सिर्फ अपनों के लिए।
बातचीत में एक दिन यूँ ही उन्होंने कहा कि अगर खुद से कोई शिकायत है और वजह खोजना मुश्किल हो रहा हो, तो लिखना शुरू करो. बस लगा, जैसे सही ही तो कह रही हैं. कहने के लिए वो मेरी बड़ी हैं, हर तरह से. उन्होंने लिखने का और खुद से नाराज़गी दूर करने का जो तरीका बताया, वो जच गया. और आज मैं खुद, अपने लिए और अपने आप पर लिख रहा हूँ। वैसे अपने इस कोने को मैंने २००९ में जीवन दिया था। समय ने समय ही नहीं दिया कि लिख सकूँ. आज फिर दोबारा कोशिश कर रहा हूँ, वो भी बड़ी हिम्मत से...!
मैं नहीं जनता की जो भी मैं लिख रहा हूँ, वो कोई पढ़ेगा भी या नहीं, लेकिन ये मेरा उद्देश्य नहीं है. लिखकर और खुद पढ़कर अगर खुद को बदल सका, तो ब्लॉगिंग की जय जय..
वरना लड़ने के लिए मैं खुद उपलब्ध हूँ ही।
लिखना शुरू कर रहा हूँ... आज से..।
कुछ सवाल जो परेशान कर कर रहे थे, उन्हें दिमाग से इस मशीनी दिमाग में डाल रहा हूँ।
अब आगे जो होगा देखेंगे..
ठीक है न!
शुरू करते है...
श्री गणेश करते है.
जनवरी 24 2010 , भोपाल/
नमस्ते
आपसे और पहली बार खुद से मिलकर कुछ अच्छा लग रहा है, आज काफी दिनों से मेरे अन्दर कुछ चल रहा था, खोजने पर कुछ सवाल थे, जिनमें से कुछ औरों से थे और कुछ खुद से... जिनसे पूछना है उनके लिए समय का इंतज़ार कर रहा हूँ। हाँ, अपने सवाल-जवाब से जरुर निकलना चाहता हूँ। इसलिए आज लिखने का मन किया. सवालो की अपनी खोज शुरू करता हूँ।
१- तुम कौन हो और तुम्हारे होने का मकसद क्या है?
थोडा सोचा...३ दिन लगे जवाब सोचने में. अब मजाक मत समझिये क्योंकि खुद को पहचानने और होने के कारणों की खोज करना इतना आसान काम नहीं है. खैर जवाब मिल गया. "मैं अपने घर का बड़ा बेटा हूँ, जो खुद को समझदार समझता है लेकिन वास्तव में है नहीं। वो सुबह उठता है, दिन भर के कामों को अख़बार पलटते हुए तय करता है, जिन लोगो का ज़िक्र इस सोच में आता है, उनके प्रति उस दिन की विचारधारा बनाता है और घर वालों पर टूट पड़ता है, ऑफिस आता है, जहाँ उसकी एक तय जगह है, लोग है, काम है, हँसतें-रुठते मुंह बनाते दिन निकालता है और वापस घर चला जाता है। "
उसके यानि मेरे होने का मकसद मुझसे खुद से क्यों जुदा है? यह सोचकर थोडा अजीब लगता है. आज से पहले यानि इस सवाल का जवाब खोजने से पहले इतना अजीब कभी नहीं लगा। खैर, मकसद जो मिला, वो दूसरों से जुदा था. कोई चाहता है, मैं ये करूँ, वो करूँ। कोई चाहता है ये बन जाओ, वो बन जाओ, कोई तो ऐसे भी है, जो देखते ही कह उठते है, ' जब से आया है, जीना-हराम कर दिया है, उनसे मेरा होना हज़म नहीं होता। घर में सभी चाहते है कि मैं आगे जाओ, कुछ बनूँ, लेकिन उन्हें शक है कि खुद कुछ न बिगाड़ ले।
लगता नहीं है कि सवाल का सही जवाब खोज पाया हूँ। बस जो खोजा है लिख रहा हूँ ।
सवाल कुछ और है लेकिन आज के लिए बस...
घर जाना है, खाना खाना है, सोना है ताकि कल उठ सकूँ।
चलता हूँ।
मिलते रहूँगा,
और कहाँ जाऊंगा.
शुभम ...
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